मैं अधुरा/ main adhura
मैं अधुरा
सब जानते है, सब समझते है ।
'जिंदगी का खेल अनोखा' सब मानते है ।
बिन बाती दीया नहीं, दीये बिन रोशनी नहीं।
चाँद बिन चाँदनी नहीं, सुरज बिन किरण नहीं ।
फुल बिन खुशबू कहाँ, जल बिन नदियाँ कहाँ।
कहाँ जीवन बिन जान, कौन है अनजान ?
कौन यहाँ अनजान !
है रक्तवाहिनी तो रक्त, है धरा तो ये वक्त।
कौन? कब तक रहे शक्त है ?
कौन रहे प्रभु बिन भक्त?
मैं अबोध, अज्ञ।
कहता, सुनता, देखता, करता यज्ञ ।
मेरे यत्न, प्रयत्न हुए ।
मेरे प्रयास, जप से तप हुए।
कहुँ किसे, कौन रहा मर्मज्ञ।
सब जानते हैं, सब समझते हैं।
मैं समझता कोई चाँदनी,
कोई नदियाँ, कोई खुशबु,
कोई दीया, कोई रोशनी, कोई नदियाँ ही मिले ।
मैं मानता हूँ कि चाँद हो,
सुरज हो, फुल हो, बाती हो,
दीया हो या जल हो तो ही जीवन खिले ।
बिन युगल मैं अधुरा ।
है प्रकृति सब चीर काल,
सब क्षणिक रहे, पर साथ रहे ।
मैं अधुरा, मैं भटकता ।
सब समझता,सब जानता ।।
मैं अधुरा जग मैं फिरता।
मैं अधुरा।।
Kavitarani1
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