शिखर / shikhar




 शिखर


ऊँची नीची राह थी,

बङी कठिन मेरी चाह थी।

मेरे तन को मन की आस थी,

बस यही बात कुछ खास थी।।


मैंने मन ही मन ठानी थी,

पत्थरीली है राह जानी थी।

बस शिखर की हवा खानी थी,

और यहीं से शुरू मेरी कहानी थी।।


दुर्गम था पर मनमोहक बङा, 

रास्ता था मेरा कठोर बङा।

अदृश्य था जैसे हिमालय खङा,

और मैं भी शिखर देखने को अङा।।


आखिर कब तक तकरार होनी थी,

चुनौतियों को चुनना मजबूरी थी।

मैंने रास्ते छोङे पगडंडीयाॅ चुनी,

और मन में शिखर की ज़िद सुनी।।


समय बदला, दृश्य बदला,

मैदान खत्म हुए, ऊँचाईयाॅ दिखी।

हिमालय की मनमोहक वादियां दिखी,

था दूर भले, पर अब शिखर दिखा।।


अब नजरों में मेरे लक्ष्य है,

करने रास्ते सारे व्यस्त हैं। 

अब बस शिखर को पाना है, 

जीवन साकार बनाना है।।


-कविता रानी। 


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