फिर से | Fir se


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यहाँ कवि अपने मन को डाँडस बँधा रहा है और शाम को अपने मन की बात अपने आप को कह रहा है। पथिक को अपना एकान्त प्यारा है। यहाँ वो पाता है कि कैसे चीजें लगभग एक जैसी घटित होती है।

फिर से 


फिर दिन बित गया,

फिर शाम आई है, 

फिर से एकान्त ने,

परछाई दिखाई है।

फिर याद करता हूँ, 

मैं तुम्हें तरसता हूँ, 

फिर दिन सुहाने भाये है, 

फिर सपने तेरे आये है।

फिर बात पुरानी हुई है, 

फिर शाम हो आई है।

फिर तेरे हाथ का खाना,

और तेरी आवाज,

और तेरा गाना, 

फिर तेरी गोद मैं सिर,

फिर तेरी ऊँगलियों के सिरे,

मुझे याद आये है।

मुझे अहसास कराते  है,

तुम्हें पास बुलाते है,

तेरी कमी खलती है, 

तेरी बातें मलती है।

मेरा मन मरता है, 

तुझे याद करता है।

फिर दिन भर कि थकान,

और ये खाली मकान,

वो धुप ढुँढती छाँव, 

और बातों का अबांर,

तुझे ढुंढते है।

तुझे बुलाते है। 

तुझे सोंचतें है।

तेरी बातें करते है ।

तेरा खयाल करते है। 

फिर वही सपने,

फिर वही काम,

फिर खुद को संभालना,

फिर से अकेला रहना,

कुछ कहना खुद सुनना,

वही रोज की प्रार्थना,

तेरे पास होने की याचना,

फिर से दुर वहीं,

फिर से सफर वही,

फिर से तेरी बातें, 

और ना हो सकी मुलाकातें

 याद करनी है। 

मुझे जीनी है।

शाम काटनी है, 

रात बाटनी है,

अकेले रहना है। 

खुद से कहना ।

एकांत में जीना है। 

अकेले रहना है। 

फिर से यही कहना ।।


Kavitarani1 

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