अचरज है!, Acharaj hai
अचरज है!
मैं अक्सर बगीया में टहलता हूँ ।
वहाँ फुल-पत्तियाँ बहुत भाती है ।
कुछ पौधे हॅसके मिलते है ।
कुछ शाखायें फल देती है ।
अमूक सब बड़े उदार है ।
बगीया मानवता के लिये वरदान है ।
पेड़-पौधे-टहनियाँ-पत्ते रहते रोज एक से ।
हवा, हरियाली, फल, आनंद देते ये सहज ही ।
अहम नहीं दिखता क्षण भर भी ।
इनको भी है मिटना ही ।।
पर जब देखता नव फूलों को ।
सुबह सुंगधित, दुपहर गर्वीत और मुर्झित होते शाम को ।
अहम् में ऊँचे उठे होते क्यों ?
आकर्षित करते अपने दिखावे से ।
लेना चाहे तो देते कांटे क्यों ?
खिंचते अपनी महक से ये ।
लेना चाहे महक साथ बिगड़ जाते क्यों ?
एक दिन का जीवन होता ।
फिर रखते इतना अहम् क्यों ?
देख बगीया के पत्तो-शाखाओं-फुलों को ।
अचरज है, भिन्नता रखते क्यों ?
मैं अक्सर जाता अब बगीया में ।
फल चुनता,डाली झूलता,पत्तों से खेलता हूँ ।
सुगंध फूलों की लेता हूँ, जो है नहीं उनके वश में यों ।
हैं अजरज अब फूलों को ।
देख रोज के खैल को,
अचरज है जीवन को ।।
Kavitarani1
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