सुनी भाग-3 बाल जीवन / suni part-3 Bal jivan

सुनी भाग-3 बाल जीवन 


सुदूर शहर से उपवन किनारे,

सरिता जिस गाँव के चरण सँवारे,

विध्यारागी चहल आँगन में,

जब सुनी चित्कार घङी मंगल में।


अनुजा सबकी विशाल कुटुम्ब में,

दौङती फिरती आँगन-आँगन में,

वो खैल-कुद में अग्रगामी थी,

कहा कुछ भी तो, सबने सुनी थी।


सुंदर मुख तेज प्रतापी दिखता,

चंचल, चपलापन उसपे जचता,

लाङ प्यार ने आजादी दी,

हर बात उसकी सबने सुनी थी।


धुल-मिट्टी से फर्क ना पङता,

गुड्डे-गुड्डी से बचपन बढ़ता,

गाँव सखाओं मे सबसे प्यारी थी,

हर घर में जाती जहाँ उसकी सुनी थी।


अपने ज्ञान का परचम लहराती,

अपनी धुन में गाती जाती,

कोई नहीं पराया लगता,

उसे बस हरदम मौज जमता।


हुङदंग से दंग करती थी,

हमेशा सबसे लङती थी,

आँसुओं से लगाव था जैसे,

समझती नहीं थी कोई समझाये कैसे।


जैसे-जैसे साल गुजरे,

शाला में जाती अब पढ़ने,

सारा सार अपने मे रखती,

पढ़ने में ध्यान रखती।


घर आते कुएं पर जाना,

कुआँ भरा तो कुएँ में नहाना,

नदी चढ़ी तो कलाबाजियाँ की,

बचपन में खुब शैतानियाँ की।


पेङ पर चढ़कर कुलाम खैली,

आम, अमरुद पेङ पर तोङे,

चोरी-चुपके शहद भी तोङे,

नेता बनी तो अपनी टाली।


हमजोली की बना के टोली,

गाँव बसा मिट्टी की बस दोङी,

बैलगाङी, खैत बनाये,

वो बचपन का संसार बसाये।


काँच के कंच जीते-हारे,

गीली-डंडा में दौङ लगाये,

लुका-छुपी में शातिर रहती,

तार-म-तार जोर से कहती।


मधुर बचपन आनंद हरदम,

घर पर जाकर फिर हुङदंग,

मम्मी-पापा की लाङ की बेटी,

भाई-बहन की डाट भी सुनती।


घर का कोई काम ना करती,

दौङी-दौङी हरदम फिरती,

टी.वी. के आगे के पल ना हिलती,

अपनी मनमानी करती रहती।


बहिन की डाट भाई से भरती,

भाई की डाट बहिन से कहती,

सबसे अनदेखी पर मम्मी से मिलती,

पापा की पुकार पर मरती।


गलती पर सहम जाती,

कुछ किया गलत सामने ना आती,

छुपकर सुनती कौन, कहा,

सब ठीक पाकर बाहर आती वहाँ।


बङी सयानी बङी चतुर, 

अपने पर आने ना दे खुर,

दुसरों के काम अपने नाम,

अपनी गलती करती दुसरों के नाम।


खाने-पीने में पीछे ना रहना,

जो मिले छिन कर लेना,

जल्द बाजी में सबसे आगे,

उसकी चीख से सब भागे।

लङ के कोई जीत ना पाता,

हर पेंतरा उसको आता,

लङको में भी लङ के आई,

लङकियों में नेतृत्व पाई।


बङे-बुढे़ सब सराहना करते,

कुछ दिनों में ही याद करते,

उसकी बातों में ही होती ठिठोली,

जमके खैलते वो रोज होली।


उत्सवों का जब आगाज होता,

सबसे ज्यादा उसे याद होता,

अब क्या करना इसके आगे,

उसकी सुन-सुन सब दुर भागे।


पिछा करती दौङ लगाती,

रंगो को भर-भर के लगाती,

कौन बङा, कौन बुरा भूल जाती,

सबको अपने रंग रंगाती।


दीपों को अपने मन सा सजाती,

फुलझङियों से दुसरों को चिङाती,

पटाखे से डर भी जाती,

फुहारे चकरी को छुपाती।


तीज त्योहार पर खुब सजती,

गौर वर्ण पर आह भरती,

राजकुमारी का स्वांग करती,

राजकुमार के सपने तकती।


कार्तिक के व्रत करती,

ठण्डी भौर में भी जगा करती,

साफ मन से पुजा करती,

मन्नतों से बाल मन हरती।


कपङे की लाङी होती,

राजकुमार लाङा होता,

बहा देते नदियों में दोनो को,

आजीवन संग मागती ऐसे प्रेम को।


सुनी बाल मन की बातें,

लगी कुछ मेरे सी सोगाते,

अलग रहा बस घर का आँगन,

अति प्रेम और कुछ सावन।


हर योवन का आनन्द लेती,

घर पर कुछ काम और खैती,

पशुओं को भी अब संभाल रही,

सुनी हुई हर सिख-सिख रही।


बित रहा एक-एक कर सावन,

कहीं दुर देख रहा रावन,

हर बरखा में वो खुब भीग रही,

अब मन की घटायें थी बढ़ रही।


अनजान अभी कल से वो,

खैल रही बाल मन से जो,

कुछ फिक्र अभी नहीं सताती,

कल की भी कोई याद नहीं आती।


बैठ जाती छत के छोर पर,

खुश मन देखती ढलती कोर पर,

कुछ आशाओं की संवेदना होती,

अभी बस छोटी मोटी बात रोती।


अँधेरे के साये से,

डर लगता है पराये से,

किसी और घर को नहीं जाती,

कभी अपने मन को नहीं दबाती।


खुलकर कहना खुश रहना,

आनन्द में कहना मस्त रहना,

आदर्श सा बचपन बह रहा,

जीवन यादगार लम्हा रहा।


अपने लम्हों को समेटे,

कहने लगे जहाँ कोई बैठे,

नानी-नाना को भी कहती,

बढ़ी सयानी सी बनी रहती।


सुलभ, सुखद मौज की मारी,

काम करती लगती मेहनती प्यारी,

बढ़ो से होढ़ करती,

थकती पर कभी ना रुकती।


कुछ घर से सिख मिली,

कुछ रब की महरबानी,

दिखावे, बहानों से दुर दिखी,

वो अद्भुत सी ऊर्जावान दिखी।


बालपन की छवि धुंधली,

याद करता कवि गोधुलि,

बैठ भैंस पर घर आती वो,

क्या-क्या ना कर जाती वो।


अचरज उसके काम पर होता,

कौशल भी करतब पर रोता,

काम कोई जो उसे ना आये,

जो भी बताये झट से कर जाये।


शाला, घर से जब लोट आती,

अपने गृहकार्य पर ध्यान लगाती,

कुछ उदासी, कुछ उबासी से,

पर काम हो जाता झटपट से।


फिर सोने की जगह ढुँढना,

आज किसकी चादर खिंचना,

और जहाँ मस्ती का डंका बजता,

बिस्तर वहीं पर सुबह करता।


उठने की भी थी लाचारी,

रविवार को भी सुननी पङती भारी,

उठ कर फिर कुएँ पर जाना,

फिर से वही धुम मचाना।


अपनी मण्डली में नये कपङे आये,

अब दोस्तों को कैसे चिढ़ाये,

मुहॅ फुलाकर जब वो बैठ जाती,

पापा उसकी समझ जाते कि क्या बात थी।


शाम तक इच्छा पुरी,

लाङली को नहीं कोई दुरी,

फिर से मस्त मगन इतराती,

दौङी फिरती इठलाती।


घर मौहल्ले में बाजे आते,

शौर से उसमें नाचते गाते,

कौन राजा किसकी प्रजा,

मन खुला महफिल में बस अपनी रजा।


पैसे लुटे फिर लुटाये,

अनजानी शादी में अब्दुल्ला गाये,

ढोल को भी तीन चार लगाये,

सुनी नहीं पर जोर से गाये।


एक-एक कर शादियाँ देखी,

अपने घर में बजती शहनाईयाँ देखी,

बाल मन समझ कहाँ,

बस मौज मस्ती में वो वहाँ।


वक्त का पहिया चलता रहा,

मौज मस्ती जीवन में बढ़ता रहा,

कहा किसी ने कुछ की अनसुनी,

पर सुनी की बातें रही अनसुनी।


गुणवान, सुसस्कृंत, शिक्षित बनती रही,

बङे परिवार में वो पलती रही,

कोई कमी नहीं पुर्ति करने में,

आवश्यकता से पहले चीज मिलती रही।


खुशहाल बचपन माधुर्य भाव छोङ रहा,

चेहरे पर रोनक बङा रहा,

एक खिले गुलाब की है अब कली,

हर तरफ उसकी चाह बढ़ती रही।


अपनी धुन, अपने गुन,

चलती रही जीवन ले गया जहाँ तक बुन,

अब कार्य क्षैत्र से दबाव था,

घर, खैत के साथ विध्यालय का काम था।


थी छोटी काम बहुत सारा,

कभी बाजार, कभी नमक का लाना,

पर काल सुलभ, सुरक्षित था,

सुनी पर जीवन मोहित था।।


-कवितारानी।

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