दुविधा भारी | Duvidha bhari
अपने राह की मुश्किलों पर स्वयं विजय पाकर अपने लक्ष्य को पाना ही एक मात्र जीवन सार है, यही एक अद्भूत आनन्द की जङी बुटी है। अपनी परेशानियों को नजरअंदाज कर जीना ही साहसिक कार्य है।
दुविधा भारी
मैं मन मारा हूँ हारा ।
लगता हैं अक्सर बेसहारा ।
दोष दूँ किसको कितना मैं ।
रहता घूटता मन ही मन मैं ।।
ना तन की पीड़ा पार पाई ।
ना मन की क्रिङा हार पाई ।
सारा सार कहता रहता ।
अनजान जान कर सहता रहता ।।
एक साथी जीवन का चुनना है ।
उस चुनने में रोज भुनना है ।
कोई अधुरा आज है हारा ।
लगता है जैसे बेसहारा ।।
गाते लोग अपनी - अपनी ।
कथनी कितनी - कितनी है इनकी करनी ।
भरनी सब मुझे ही है भरती ।
ये जीवन नय्या पार है करनी ।।
हूँ अधुरा पूरा करने को ।
रूका हूँ जीवन सारा चरने को ।
है बहुत कुछ करने को।
मर रहा हूँ कल जीने को ।
Kavitarani1
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