दुविधा भारी | Duvidha bhari
दुविधा भारी
मैं मन मारा हूँ हारा ।
लगता हैं अक्सर बेसहारा ।
दोष दूँ किसको कितना मैं ।
रहता घूटता मन ही मन मैं ।।
ना तन की पीड़ा पार पाई ।
ना मन की क्रिङा हार पाई ।
सारा सार कहता रहता ।
अनजान जान कर सहता रहता ।।
एक साथी जीवन का चुनना है ।
उस चुनने में रोज भुनना है ।
कोई अधुरा आज है हारा ।
लगता है जैसे बेसहारा ।।
गाते लोग अपनी - अपनी ।
कथनी कितनी - कितनी है इनकी करनी ।
भरनी सब मुझे ही है भरती ।
ये जीवन नय्या पार है करनी ।।
हूँ अधुरा पूरा करने को ।
रूका हूँ जीवन सारा चरने को ।
है बहुत कुछ करने को।
मर रहा हूँ कल जीने को ।
Kavitarani1
89
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें