दुविधा भारी | Duvidha bhari



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दुविधा भारी 


मैं मन मारा हूँ हारा ।

लगता हैं अक्सर बेसहारा ।

दोष दूँ किसको कितना मैं । 

रहता घूटता मन ही मन मैं ।।


ना तन की पीड़ा पार पाई ।

ना मन की क्रिङा हार पाई ।

सारा सार कहता रहता ।

अनजान जान कर सहता रहता ।।


एक साथी जीवन का चुनना है । 

उस चुनने में रोज भुनना है ।

कोई अधुरा आज है हारा ।

लगता है जैसे बेसहारा ।।


गाते लोग अपनी - अपनी ।

कथनी कितनी - कितनी है इनकी करनी ।

भरनी सब मुझे ही है भरती ।

ये जीवन नय्या पार है करनी ।।


हूँ अधुरा पूरा करने को ।

रूका हूँ जीवन सारा चरने को ।

है बहुत कुछ करने को। 

मर रहा हूँ कल जीने को ।


Kavitarani1 

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