मैं राही अभागा | main rahi abhaga
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यह प्रेरणास्पद कविता हमें बताती है कि किस प्रकार से एक राही को हमेशा खुद को एक फल लगे पेङ की भाँति झुक कर चलना चाहिए। जिसके जीवन में कई कष्ट रहे हैं उसे कभी भी अपने भुतकाल को नहीं भूलना चाहिए।
मैं राही अभागा
मैं राही अभागा क्या चाहूँ।
जो मिले राह सब वो गले लगाऊँ।
कौन मेरा अनाथ सा जग में।
जो गले लगाये उसी का हो जाऊँ।।
पथ भटका बस मंजिल को चाहूँ।
जो प्यार से बात करें सुनता जाऊँ।
मैं पथिक के सहारे क्या कहूँ।
जो मिले सहर्ष उसी से गुजारा पाऊँ।।
मैं मावस का जन्मा क्या देखूँ।
पूनम रात के बस सपने सजाऊँ।
कौन मन से हाथ बढ़ाये?
जो पुकारे बस नाम उसी के साथ हो जाऊँ।।
सुखी जन्म का पला-बड़ा।
कुछ नमी देख ही खुश हो जाऊँ।
मैं रेतीले धोंरो का राहगीर।
हरी घाँस के बस सपने सजाऊँ।।
मैं कड़ी धुप का मजदूर सा।
जो पूछे कोई अपनी मजबुरी बताऊँ।
कौन सुने दर्द पराया जग में।
जो कहे अपनी व्यथा मैं बस सुनता जाऊँ।।
राही मैं दूर का।
अपनी राह गुजारता जाऊँ।
कोई सुने ना सुने मेरी।
मैं अपनी गाथा लिखता चलता जाऊँ।।
मैं पथिक अभागा क्या चाहूँ।
जो मिले पथ पर वो सब जोड़ता जाऊँ।
मैं राही अपनी धुन मैं जाऊँ।
मैं राही अपनी धुन में जाऊँ।।
Kavitarani1
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