दास्तां ए जुल्म | Dastan E julm
दास्तां ए जुल्म
अभी शब्दों में दम ना था ना थी समझ कोई।
बालपन में उतरा की आधी रोटी खाकर आँखे थी रोई।।
शुरू था सफर दो कदम ही बढ़ा होगा घर से आगे।
अभागे मेरे भाग मेरी माँ को यम ले साधे।।
आधा अनाथ शराबी नाथ के कहर से रहा कांपता।
हर दिन गाली मार की लाली भय हर ओर रहा भांपता।।
कभी पिङियो का बिस्तर कर पागल ने सुलाया जोर से।
कभी बंद कर कमरे में रात भर डराया जगाया शौर से।।
कभी अचानक भूत सवार लेकर आया नग्न किया परिवार में।
कभी मद अंधा होकर मारा पिटा नंगा कर भगाया संसार में।।
रात दहशत से जागी भागते फिर बचाव की चाह में।
हर दिन हशरत रही मिले भरपूर भोजन बचपन की कराह में।।
शाक का पता ना था रोटी खाई कई बार प्याज से।
शाम का डर था मांग ना हो कहीं पैसों की आस से।।
फटे पुराने लिबाज में सह रहा जीवन कर हिम्मत अपने आप में।
एक-एक कर जोङ रहा पुरी करता कमियाँ अपने आप से।।
एक बैरी काफी ना था एक पागल और बनाया साथ में।
हर एक नजर रखता मारता गालियाँ देता अपने हिसाब से।।
अपमान सहता शब्दों के शर्म से मन मारता जीता मुस्कान से।
किसी ने छेङ दास्तां ए जुल्म याद आया अपमान ये।।
-कवितारानी।

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