मुझे मन मारे/ mujhe man mare
मुझे मन मारे
मुझे जग का कोई लोभ नहीं, परिवार से मेरा जोग नहीं।
संजोग हुआ ना प्रेम पथ का, मैं रहा मन का मारा।
मैं पथिक फिरुँ आवारा, मैं फिरुँ आवारा।।
कोई मेरे साथ नहीं, कोई मेरे मन के पास नहीं।
है आस लगी किसी को, कोई मेरा खास नहीं।
बस यही गम का बोझ, चलता हूँ बंजारा।
मैं फिरुँ आवारा, मैं फिरुँ आवारा।।
जब-जब कोई जोग लगा, मन पर मेरे बोझ लगा।
लगा उसे या लगा रब को, छुटा बंधंन आवारा।
मैं फिरुँ आवारा, मैं फिरुं आवारा।।
एक नजर मिली मन ढोल उठा, लगा जैसे पपीहा बोल उठा।
जैसे सावन कि फिर झङ लगे, जैसे बादलों कि ओट लगे।
लगा जैसे सावन होगा खत्म ना दुबारा।
मैं फिरुँ आवारा, मैं फिरुँ आवारा।।
कुछ दिन का वो सावन, फिर सिहरन भरा साळा था।
फिर से पतझङ जाग उठा, फिर मन सावन गा रहा।
मैं फिरुँ आवारा, मैं फिरुँ आवारा।।
ये जग के मोह मारे है, समय काल मेरे खा रहे है।
मिलता मोह का साथी सच्चा, मुझे मन करे ये कच्चा।
मुझे मन मारे, करे मुझे बेसहारे, मैं जग मैं उङता चलता।
मैं फिरुँ आवारा, मैं फिरुँ आवारा।।
-कवितारानी।
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