मोह के मारे | moh ke mare
चित् चिंतन छोङ; अभागा!
मति मार, मोह को भागा।
कौन काल, विजय पताका?
उलझा देह, मन बोझ आका।।
बना दानव का राज भारी।
देव लोक तक विजय सारी।
पर लोभ भरा सोम रस भारी।
फिर पीढ़ीयों तक पराजय सारी।।
था मंथन मन का सारा।
मंथन किया खीर सागर सारा।
भाग्य साथ, अमृत हाथ सारा।
मोह तन का, फिर दानव हारा।।
-कविता रानी।
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