कुछ नहीं पास मेरे | kuchh nahi pas mere
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कुछ नहीं पास मेरे।
जो सुने कोई, सुना देता हूँ।
जो पूछे कोई, बतला देता हूँ।
कोई देखे हॅसकर, हॅस देता हूँ।
मैं अक्सर जैसे को जैसा देता हूँ।।
ऐसा नहीं की ये नाटक है।
ना ये कोई कोरा दिखावा है।
ये तो बन गई मेरी आदत है।
ये आदत ही मेरी फितरत है।।
मधुर को माधुर्ययुक्त कहता हूँ।
कर्मठ को कर्मयुक्त कहता हूँ।
पापी को पुण्य मुक्त कहता हूँ।
खुद को रिक्त रखे रखता हूँ।।
क्या ही रखुँ पास मेरे जो है नहीं मेरा।
क्या ही कहूँ बोल जो है नहीं मेरे।
जो पाता चला गया जग से मैं।
वो लुटाता चला गया तब से मैं।।
शुरू से कुछ ना सहेजा मैने।
कुछ नहीं पास मेरे।।
- कवितारानी ।
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