मन मेरा जा रहा । man mera ja rha


वो कहते हैं ना मन के हारे हार है, मन के जीते जीत । इस कविता में हमनें इसी को शब्दार्थ करना चाहा है कि बिना मन के हम कोई लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते हैं ।

मन मेरा जा रहा।

व़क्त चला जा रहा बहते दरिया सा।
आसमान बुला रहा पूरे होते सपनों सा।
एक रुक ना रही घङी मेरी।
एक रुक ना रहा मन मेरा।।

बन पथिक, अथक चला जा रहा।
घनघोर अंधकार में मंडरा रहा।
मृग तृष्णा सी जगी रहती प्यास कोई।
मैं तङाग पार कर -जिया जा रहा।।

बदलती तस्वीर को सहेज कर।
तकदीर को बदलता देख कर।
अवधारणायें नयी-नयी बना रहा।
छूट चुका पिछे जो उसे भूलाता जा रहा।।

कच्चा मन का पक्का तन का मैं।
अधूरा सिखा हूँ पर रण का मैं।
इस धरा के कण-कण पर गा रहा।
जहाँ आती आवाज़ देश की वही जा रहा।।

ठहरा नहीं, ना ठहरने का मन होता।
तन पर ही सारा धन होता।
हकीकत को ऐसे ही साथ ला रहा।
अपना रास्ता खुद बनाता जा रहा।।

था दरिया साथ राहें मिली।
पर्वतों से हिम्मत-ताकत मिली।
हवाओं से सिखता जा रहा।
मैं मन का मारा चला जा रहा।।

- कविता रानी।
 

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