क्या कहूँ जिंदगी में
शिकायतें
(क्या कहूँ जिंदगी में )
क्या कहूँ मैं जिंदगी और,
कसमकस नहीं इतनी पर अब अपना जोर नहीं चलता।
मिलता बहुत है जमानें में बिना मांगे भी,
पर जो मांगा वो नहीं मिलता।।
सार संभाल करते है हर पाई चीज का,
जाने क्यों रुसवा हो जाते है लोग समय के साथ फिर।
पास रहता नहीं कुछ ज्यादा बाकि,
रह जाता अनुभव सुनाने को खास बस ।।
मंजिल के सफर में जो है सब उम्दा है,
पर जो सपने हाथ नहीं आये,
उन सपनों की हार से मन शर्मींदा है।।
ऐसा नही है जिदंगी की मैं टुट गया हूँ,
बस जो मिला नहीं उस बात से रुठ गया हूँ।।
कोशिशें वहाँ नाकाम हुए बैठी है,
बंदिशे जिसमें कुछ कर नहीं सकते,
चल रही है घडियाँ बिना रुके,
और मैं अपनी चाहत को लिये बैठा हूँ।।
क्या चाहूँ मैं और जिंदगी,
हालातों के आगे मजबूर हूँ,
क्या कहूँ बदलते वक्त की मैं,
मैं तो अपनी खोज से खिन्न हूँ।
क्या कहूँ मैं जिंदगी,
अपनी कोशिशों में सफलता ढूंढ रहा मैं। ।
कवितारानी 1
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