बोझ भारी / Bojh bhari
मन के बोझ को मन ही जानता है, इसे कितना ही हम बताना चाहे सही तरिके से बता नहीं सकते। यह कविता इसी प्रकार के मन के बोझ को बताती है।
बोझ भारी
रफ्तार लिये जिंदगी दौड रही।
खुद ही खुद से अब हौड़ हो रही।
रूकना चाहूँ भी पर रूकना हो रहा नहीं।
दिल है उलझा कहीं जिंदगी कहीं।
है बोझ भारी,है बोझ भारी ।।
लग रहा है जैसे अब है मेरी बारी।
बन रहा है आशियाना आलिशान।
दिल में उतर रहा खास इंसान।
आन है रखनी बचाकर कहीं।
कहीं रखनी है जिंदगी बचाकर।
उधार बढ़ रहा है, बढ़ रहा है बोझ।।
ओज से भरा रहता हूँ मैं।
और दिख रहा बोझ।
है ओज जीवन में रोज।
लोग समझते हैं इसे मौज।
पर मेरी नजर में है ये।
है बोझ भारी, है बोझ भारी।।
Kavitarani1
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