मकर संक्रान्ति पर
मकर संक्रान्ति पर
उड़ रही पतंगे सब ओर ।
संगीत का शौर है हर छत पर ।
झूम रहे लोग हर ओर ।
खुश लग रहे सब मकर संक्रान्ति पर ।।
मैं बैठ दूर अपने गाँव से ।
देख रहा पतंगे अपनी छत से ।
गुन रहा संगीत एक धुन से ।
याद कर रहा बचपन गाँव मन से ।।
काश मैं भी पतंग बन जाऊँ ।
ऊडूँ मस्त हवा में और गोते खाऊँ ।
डोर कोई काटे ना इतना साहस कमाऊँ ।
जो झेड़े मुझे उसकी पंतग काट गिराऊँ ।।
शौर करूँ अपनी मस्ती में ।
झूमूँ अपनी जीत की खुशी में ।
डील दूँ अपनी पतंग को खुले आसमां में ।
आजाद फिरूँ में ऊँचाईयों में ।।
धूप का डर ना ठण्डी हवाओं का ।
दुपहर की परवाह ना सांझ की ।
तिल , मोतीचूर के लड्डू खाते हैं ।
मस्ती से छत पर पतंग उड़ते और खैलते है ।
मकर संक्रांति पर ।।
Kavitarani1
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