लाचार सा मैं | Lachar main
लाचार सा मैं
वक्त के आगे बेबसी हूँ या लाचार हूँ खुद से।
समझ ना पा रहा क्यों नाराज हूँ खुद से।।
समय गुज़रता जा रहा और सपने आँखो में अटके पड़े हैं।
बेबसी है या लापरवाही कि अटके पड़े हैं क्षितिज पर।।
वो मंजर जो भयावह था जी लिया कभी का ।
तब ना बेबस होके रूके ना आज, फिर क्यूँ लाचारी।।
लग रहा मैं कहीं अधूरा ख्वाब लिये यहाँ से चला ना जाऊँ। ।
जो बेरूखी सी अटकी पङी जिन्दगी उसी में अटका ना रह जाऊँ।।
ये गवारा ना होगा जो में ऐसे ही भूला दिया जाऊँ। ।
नागवार ये भी की कुछ कर भी ना पाऊँ।।
कह देता है मन की वश में नहीं कुछ भी मेरे जो मैं करूं।
इसीलिए लगता है मुझे, कि जैसे हूँ लाचार मैं।।
करता हूँ कुछ वो अब लाचारी ही है जो में मन से ना करूं।
लगने लगा है एक पड़ाव ज्यादा लंबा हो गया ।
सुकून है पर खुद के ख्वाब से से लड़ रहा ।।
ज्यादा कुछ ख्वाहिश नहीं ना मांग हैं कुछ ज्यादा पाने की।
बस जो ख्वाब में है वो मिल जाये संतोष है उसमें ही।।
अभी मेरे हाथ में नहीं यही बेबसी है मेरी ।
किस्मत के भरोसे या वक्त के वश मे है जिन्दगी मेरी। ।
Kavitarani1
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