ना चाहके भी...| na chahke bhi


 

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ना चाहके भी...


रात हो अँधेरी या ऊझली ही,

दिन थकान भरा या आराम ही ।

करवटों में रात गुजर जाती,

और दिन की धूप जलाती है । 

देखूँ रोज नये चहरे,

मुझ पर होते लोगों के पहरे,

व्यस्तता में रहूँ या बैठा यूँ ही,

जाने क्यूँ ना चाहके भी कोई कमी सताती है । 

तेरी याद आती नहीं, 

पर तू सताती है। 

ना चाहके भी...

तू ही मुझे भाती है ।

सोचना चाहूँ ना,

देखना चाहूँ ना,

बुलाना चाहूँ ना,

फिर भी तेरी परछाई आती है । 

ना चाहके भी,

मेरी तन्हाइयों में, 

मेरी खामोशी में, 

मेरी रूसवाई में, 

तेरी कमी नजर आती है । 

मुझमें तेरी कमी नजर आती है । 

ना चाहके भी,

तू ही मुझे भाती है । 


Kavitarani1 

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