तारे गिन रहा हूँ | Tare gin rha hun



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इस कविता में पथिक अपने आप को खुले आसमां के निचे पाता है और अपने एकान्त में खो जाता है। यहाँ वो निरर्थक काम कर अपना मन लगा रहा है जैसे वो तारे गिन रहा है।

 तारे गिन रहा हूँ  


खुले आसमान के तले,

बैठ अकेले,

अपने कल के सपने चुन रहा हूँ  ।

मैं काली रात में,

अकेले में,

अपने सपने बुन रहा हूँ ।

मैं तारे गिन रहा हूँ ।

एक छोर से शुरू,

दुजे छोर पर खत्म करता,

मैं उलझनों में उलझ रहा हूँ,

गिनती अधूरी रहती,

अधुरे सपने बुन रहा हूँ,

काले आसमान में,

चमकते, बुझते तारे गिन रहा हूँ,

मैं सपने बुन रहा हूँ ।

कोई आये सुन मुझसे,

कैसे रहे अकेले में दिन मेरे,

अकेलेपन के ख्वाब सहेज रहा हूँ,

मैं अकेले में,

अपने सपनेे चुन रहा हूँ ।

खुले आसमान के तले,

तारे गिन रहा हूँ  ।।


Kavitarani1 

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