कब दिन ढले / kab din dhale
कब दिन ढले
पूरब की किरणें उठ खड़ी हुई ।
शांत, शीतलता लिये बढ़ी हुई ।
डाल - डाल चहक रही ।
हवायें मध्यम अब तेज हुई ।
मन बावरा खोया सा ।
किस्मत पर अपनी रोया सा ।
सोच रहा आगे की ।
कि कब शाम ढले ।
कब तक रोज - ऐसे जीये ।
कोई आस नहीं ।
कोई पास नहीं ।
एकान्त में कोई साथ नहीं ।
यौवन की ढलान में ।
जीवन की भौर याद आई ।
बैठ छत पर ।
मन कर रहा सवाल वही ।
खुब जीये और जी रहे ।
अब शाम हो और
कब दिन ढले ।।
Kavitarani1
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