तुम / Tum
प्रस्तुत कविता में कवि अपने पथ से भ्रमित पथिक को उलाहना देते हुए, समझा रहा हैं कि वो व्यर्थ में ही भटक रहा है, जबकि सब जो वो चाहता है उसी के पास है।
तुम
हो गयी रात तब सवेरा ढुंढते हो ।
भरी चाँदनी छोड़ धुप तकते हो ।
कैसे समझायें ऐ - वक्त - से बेखबर यार मेरे ।
जो आज है उसे ही तुम कल ढुंढते हो ।।
चली गयी बरसात अब नमी ढुंढते हो ।
रही हरियाली छोड़ फुल खोजते हो ।
कैसे बतायें ऐ - नादान दोस्त मेरे ।
जो है पास उसे ही तुम हर बार ढुंढते हो ।।
ये हवायें कहती हे, सुनो क्या कहती है ?
फिजाओं की तरह ऋतुऐं बदलती है ।
गुजर जाता है वक्त और ये बहारें सारी ।
समझो कि रह जाती है इनकी बस यादें सारी ।।
बिगड़ गयी बात अब बहाने ढुंढते हो ।
अपनी जिद पकड़ बातें मोड़ते हो ।
कैसे समझायें ऐ मेरे यार ।
तुम खुशियों का रूख मोड़ते हो ।।
Kavitarani1
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