मन का बोझ भारी | Man ka bojh bhari
मन का बोझ भारी
हाय ! बोझ भारी ।
कैसी काया ये ?
भावनाओं का रहता ज्वार भारी ।
हाय ! बेरी मन का तो बोझ भारी ।।
साथ जग सारा,
कहता और देता सहारा ।
पास अपनों के अपने स्वार्थ भारी ।
अपनी धुन का धुनी मन मेरा,
सुनता रहता बाहरी ।
लेता सबके शब्दों को मन पर,
जब है खुद के दुखड़े भारी ।
हाय ! मन के ऊपर बढ़ते बोझ भारी ।।
कैसी करनी ?
कैसी भरनी ?
अपनी नाव करनी वैतरणी ।
बोध सबका ज्ञात,
अज्ञात की जानता जात ।
करता ना भेद-पात,
दात देता और समझता बात सारी ।
समायोजन, समाज और आजीविका का,
उसपे स्वार्थ करता प्रहार ही ।
चलता रहता काया का काल भी,
और मन पर आरी ।
हाय ! मन पर बोझ भारी ।।
कंचन काया काँच सी चमके,
खींच चमक तन भी चमके ।
मोह-मोह के मोह में उलझे,
नासमझि में समय बीते ।
बीते दिन, महिने, साल और जीवन प्रहरी ।
सोंच ! मन पर मोह भारी ।।
कल का कोरा कागज आज,
जगह नहीं लिखने की ।
सुर नहीं, ताल नहीं,
तो लिखता-मिटाता गीत खुद ही ।
खुद ही लिये चल रहा,
भुल रहा की ये मन किसकी करता सवारी ।
तेज गति भाग रहा है इसके शौक भारी ।
बढ़ती उम्र और बढ़ती बातें करतीं रहती उलझनें ही ।
मन का बोझ भारी ।
इस मन का बोझ भारी ।
हाय ! मन का बोझ भारी ।।
Kavitarani1
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