मन का कच्चा | man ka kachcha



मन का कच्चा 


कच्चा मन का, मैं मनका कच्चा हूँ ।

धूप लगे चटक जाऊँ, गल जाऊँ झिंठ से ।।


हल्के से तोके कोई, हल्के से रखे मुझे ।

दम लगाये मिट जाऊँ, बिगड़ जाऊँ जोर से मैं ।।


लगाई आग तप-तप के सिकाया था मुझे ।

पलटाया नहीं की एक ओर रह खाया कच्चा मैं ।।


कच्चा रह गया एक ओर एक ओर पक्का हूँ ।

सह लेता हूँ झोंके हवा के, सर्दी सह लेता हूँ ।।


पानी भर रख सकूँ बस कुछ पल ही मैं ।

हिल्लोरे गलाये की फिर गल जाऊँ मैं ।।


कहूँ किसे समझे ना कोई देख रंग पक्का है ।

समझे ना कोई दर्द आवाज घड़ा करता है ।।


पाकी जान-जान जन आये और देखे ।

खरीदा ना जाता नीर, जन को जरूरत है ।।


मजबुरी पाके लोग मोल करे मुझसे ।

मैं मजबुर रहता सहा जाता ना मुझसे ।।


काया देख लोग आये-आये भाव करे ।

मन का कच्चा में अब मनका पक्का कहे ।।


चाहू कोई जैसे- किया जाये ये दिखावा ।

रोज की देखा - देखी मिटे ये छलावा ।।


सहा जाये ना दर्द, ना सहा जाता मन का बोझ ।

अब काया छोड़-छोड़ मन का बोझ ।।


कच्चा मन का मैं, मन का हूँ कच्चा ।

सहता रहता लोग, ऋत का पक्का ।।


Kavitarani1 

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