मैं राही बन चलता हूँ | Main Rahi Ban Chalta hun
हम कितनी ही कोशिशें कर ले पर हम कभी अपने भाग्य को नहीं बदल सकते। पर एक पथिक जो अपने लक्ष्य पर अडिग है, उसे परवाह नहीं अपने भाग्य की, ये कविता ऐसे ही राही के ऊपर है।
मैं राही बन चलता हूँ
अपनी किस्मत का मैं मारा-मारा फिरता ।
मैं अभागा-भागा-भागा फिरता ।।
रंग देखता अंगो के, फिरता सतरंग देखता ।
अपनी धुन का धुनी मैं, खुले मन चलता-फिरता ।।
है नील कण्ठ मुकुट ताज, मन पर करता वो राज ।
नाच-नाच मोह से हरता, मोर बन मैं नृत्य करता ।।
है हरा रंग- लाल ढाल, नकल करता मन हरता ।
सुआ सुदंर बात करता, मैंना के लिये भागा फिरता ।।
एक पथिक जान, हो अनजान मंजिल की राह चलता ।
देख अथक परिश्रम को, मैं उसपे नाज करता ।।
एक जीवन सुलभ दिखता, धोरी रेत पर ढाणी पर पलता ।
दुर-दुर तक आगे बढ़ता, हिम्मत की ये बात करता ।।
सब अपनी जीवन गाथा-गाते, आते जाते दिखते-मिलते ।
मैं अभागा-भाग से मिलता, भूलता दुख आगे बढ़ता ।।
रूका ना आगे रूकता, थकता-सोंचता और आगे चलता ।
बन पथिक सिखता रहता, तलाश में जीवन कटता ।।
है राह और राही सा मैं, परिश्रमी तन और हिम्मत है ।
बटोर साहस आगे बढ़ता हूँ मैं भूल कल-आज चलता हूँ ।।
Kavitarani1
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