परपीङन सुखी | parpidan sukhi
परपीङन सुखी
मैं फुल खोजता फिरता हूँ, और कांटे आ जाते हैं ।
कदम रखता सुखी जमीन पर जो, पैर दलदल में गढ़ जाते है ।।
जो सोंचू हसीन वादियों की, मैं रेगिस्तान पाता हूँ ।
जो चाहूँ अच्छे लोग तो, परपीङन सुखी पाता हूँ ।।
पर पीङा में सुख खोजते, ये परपीङन लगते मतवाले से ।
कलयुग की ही सोचूं तो, ये सही समय वाले ।।
मैं एक बार को झांसे में आता, दुजी बार दुख पाता हूँ ।
जब कहूँ प्रतिउत्तर में, तो इन्हें दुखी कर जाता हूँ ।।
कोई गीरा जमीन पर, बहा लहू देख हँसते हैं ।
गिरने के तर्क अजीब, कुतर्क से अङते हैं ।।
सोंचते नहीं कोई पीङा में हैं, कोई घायल पङा पास है ।
कोई उलझे ना जो इनसे, हँसते अपने आप उल्लास से ।।
कोई आनन्दित दिख जाता तो दुखी हो ये जाते हैं ।
अपने आप को संभाल ना पाते, बोखला और जाते हैं ।।
मजाक बनाते और झगङते, तंग भी करने से बाज ना आते ।
एक समय बाद जब उसे दुखी देखते खुश हो जाते हैं ।।
कैसे ऐसे लोग धरती पर फल फुल जाते हैं ।
दुखी ही रहते हमेशा बस हँसते दिखाते है ।।
ना खुश रहते अन्तर्मन से ना दुसरों को रहने देते हैं ।
ये परपीङन सुखी लोग नर्क के ही वासी लगते हैं ।।
-कवितारानी।

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