व्यथा मेरी | vyatha meri


व्यथा मेरी 


मैं निज में सिमटा आज, राज मन के कहता हूँ ।

व्यथा से भरा पङा मैं, व्यथित व्यथा अपनी कहता हूँ ।।


शिक्षक बन शिक्षा का सार जाना ।

शिक्षार्थि को अपना आधार माना ।

जीव जगत के सारे भेद खोले ।

ज्ञान सागर उलेङ अनमोल शब्द बोले ।

क्या-क्या ना संभाल बस शिक्षा दी ।

खुद की भी भूल बस शिक्षा दी ।

और बदले में, और बदले में,

नाम कई पाये हैं ।

एक दिन के सम्मान को नजर झुकायें हैं ।

वो शिक्षक दिवस भी अब अधूरा रहा ।

जब विद्यार्थियों की नजरों में मान ना रहा ।।


कोई कहेगा की सिखाने वाले ने ना सिखाया होगा ।

कक्षा में बैठ मोबाइल चलाया होगा ।

क्या-क्या ना अफवाहें इल्ज़ाम बनी होगी ।

जब किसी शिक्षक ने अपनी व्यथा कही होगी ।

मैं सबकी अपनी कहता हूँ ।

मैं व्यथित अपनी व्यथा कहता हूँ ।।


मैंने पाया है मेरे कुछ शिष्य नीर हीन है,

नजरों में उनके हम क्षीण हैं ।

कुछ नहीं दे पाया मैं भी उनको, 

क्योंकि जङ में ही उनके कहीं कमी है ।

जो भूला हो उसे याद कराया जाता है,

मंद बुद्धि हो उसे प्रखर किया जाता है ।

पर बुद्धि हीन हो उसे क्या कहा जाता है,

जो निर्लज हो उसे क्या ही सिखाया जाता है ।

जो बन चुका जङ बुद्धि,

जो बुद्धि से हो अधम ही ।

क्या ही उसे कोई सिखायेगा,

क्या ही वो शिक्षक को दे पायेगा ।।


- कवितारानी।

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