जमाना | Jamana
जमाना
मैं बन शिक्षक भिक्षक लगता ।
कभी अपने शिष्यों को, तो कभी जमाने को तकता ।
थकता मैं काम करते, करता अपना काम मन से ।
धन से दूर नहीं पर चुनता शिष्य मन से ।
जो मनका होता वो जमता, शिष्य के लिए मैं काम करता ।
जमाना सोंचता मैं कंजुसी करता ।
मैं चुनता काम अपना ।।
जमाना है बदला, बदला है मिजाज सबका ।
ज्यादा ज्ञान विद्या दो तो सुनता ना कोई ।
ज्यादा आराम करो, चिंता रहित रहो तो चुनता ना कोई ।
जो मौज में रोज रहता, जमाना चिढ़ता रहता ।
ईर्ष्या से अपशकुन करते, जमाने को मैं ना जमता ।
जमाना चाहता दुखी देखना ।
मैं चुनता काम अपना ।।
दोपहर देखे साल हुए, जब देखे दोपहर अंधेरा होता ।
जीवन की भाग दौङ में मैं जवानी खोता ।
होता भला की छांव मिलती, घाव में दिन ढलता ।
अपनी रोजी को मैं भागा फिरता, जमाना इसे मौज कहता ।
रहूँ अपने में तो स्वार्थ कहता, सबसे कहूँ तो बावला कहता ।
जमाना चाहता अपना सा बनाना ।
मैं अपनी राह खुद चुनता ।।
- कवितारानी।

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