कहीं ठहर जाऊं मैं | kahi thahar jau main


 

कहीं ठहर जाऊं मैं 


बहता दरिया हूँ मैं, कहीं तो रूक जाऊँ । 

ऊँची निची राहों से, कलरव ठुकराऊं ।।

शांत सुकून कुंज सिंचू मैं ।

एकान्त वृक्ष पुंज से खुद को रिझाऊं मैं ।।


कब से धरा कई बहा लाया हूँ ।

किनारों पे इतिहास की मिट्टी सजाया हूँ ।।

रोक लूँ शीतल करने को, मध्धम हवा लूँ सी को भी ।

ठहर जाऊँ कहीं प्यास बुझाऊँ इस जग की हमेशा ।।


जाकर दूर तक सागर में मुझे ना मिलना ।

नमकीन अस्वाद नीरस पय मुझे ना होना ।।

सार अनन्त जग का गुणगान पुष्कर बनूं मैं ।

बहता दरिया हूँ मैं इच्छा करता कहीं ठहर जाऊँ मैं ।।


-कवितारानी। 

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