क्या राह दिखाऊं मैं | Kya rah dikhau main




क्या राह दिखाऊं मैं 


मैं खुद दूविधा में उलझा, सुलझा ना खुद को पा रहा ।

कुकर्मियों के कर्म सुनता, सत्कर्म होते क्या भूलता जा रहा ।

अनजान नहीं अंजाम से, पर लचार खुद को पा रहा ।

क्या राह दिखाऊं मैं, खुद ही अपनी राह भूला जा रहा ।।


जाल मैं फंसा हूँ अभी जैसे, उठता-गिरता झटपटा रहा ।

सच से दुख पाता गहरे तो, झूठ अपनाता जा रहा ।

ईमानदारी शूल सी चुबती तो, बेईमानी सिखते जा रहा ।

क्या राह दिखाऊं मैं, खुद मुशाफिर की पहचान खोते जा रहा ।।


दिन के अंधेरे पर मौन रहता, रात के अंधेरे में ऊजाला पा रहा ।

भीङ की चुभती बातों से, मौन गले उतारता जा रहा ।

अज्ञानियों के ज्ञान से भर गया, ज्ञानियों को भूलता जा रहा ।

क्या राह दिखाऊं मैं, खुद पथ से भटकता जा रहा ।।


ईर्ष्यालु नजरें दिल चीर गई, इस बार आत्मा को संभाल रहा ।

द्वेषी बेवजह के निचोङ गये, इस बार मन को मार रहा ।

बेईमानों के आगे खुद बेबस, अकेला मैं ईमान को तौल रहा ।

क्या राह दिखाऊं मैं, खुद जो ईमानदार ना रह पा रहा ।।


चालाकों के कुचक्र में उलझा रहता, खुद को बचाये रख रहा ।

नालायकों के नजरों से खटका, खुद के कर्म संभाल रहा ।

भ्रष्टाचारियों के दबाव में जी रहा, अपने आचार बनाये रख रहा ।

क्या राह दिखाऊं मैं, खुद जो लाचार सा जी रहा ।।


अपने और अपनों की पहचान में उलझा, रिश्ते सच्चे तराश रहा ।

मित्र और शत्रु के भेद में उलझा, सच्चे इंसान को तलाश रहा ।

खुद के जीवन की चिंता करता, मैं कर्म और धर्म में आस रख रहा ।

क्या राह दिखाऊं मैं, खुद के जीवन को मुश्किल से जी रहा ।।


-कवितारानी।

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