मन मैले | Man mele

 


मन मैले 


कपङे होते तो धो लेता, साफ रहने की जो मुझे आदत है ।

मटमैले कभी पहने नहीं, यही मेरी एक आदत है ।

पर मन मैले लोग आजकल मिलते हैं, इनसे कैसे दूर रहूँ ।

मुझे तो मन मैलो में भी नहीं रहने की आदत है ।।


तन के साफ रहते हैं, अपनी ही हरदम कहते हैं ।

सुनते नहीं एक पल को जो मेरी, यही मेरे मन की व्यथा भारी है ।

पर लगते बङे सयाने हैं, हर बात में गाते गानें हैं ।

मुझे तो ये मटमैले कपङो से भारी लगते हैं, मुझे ये मनमैले बुरे लगते हैं ।।


हर दम मुख पर इनके बुराई रहती, नाक चिढ़ी और भोहें सिकुङी रहती ।

अपने चमचो की तादात बढ़ाते हैं, ये हर वक्त खुद की चलाते हैं ।

एक पल को जो सच की बात करो, गुस्से से भर ये जाते हैं ।

रिश्तो से ज्यादा अहम् है भाता, मन के मैल से भरे ये रहते हैं ।।


मैथ एक पल को मन मारता हूँ, दुजी बार को कुछ नहीं कहता हूँ ।

तीजी बार मुझे भी चिढ़ होती है, फिर सत्य वचन पर तकरार होती है ।

मैं तर्क के साथ साक्ष्य लाता हूँ, और मन मैलो को खोया पाता हूँ ।

फिर बात पलट ये घूमते हैं, निचा दिखाने को मनमैले ये रहते हैं ।।


सच्चे दुश्मन कहूँ या कहूँ जोंक इन्हें, चिपके भी रहते हैं ये ।

हर बार कुतर्क करते हैं, किसी की चापलुसी में पलते हैं ।

इन्हे ना देश प्यारा है ना धर्म कहीं, खुद की भी इन्हें कोई ज्ञात नहीं ।

हर बात पर बस ज्ञान देते हैं, मन में मैल भर कर ये रहते हैं ।।


हो अनुभवी तो ही पहचान सकता इन्हें, लगते हितैशी से ये बङे ।

नुकसान ज्यादा कुछ प्रत्यक्ष का ना दिखता, भविष्य जैसे एक जगह टिकता ।

आगे तो कभी बढने देते नहीं, सच्चे हितैषी कभी भी ये होते नहीं ।

बच कर रहना इन मन मैलो से, बुरे है ये साफ मनमैले से ।।


-कवितारानी।

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