Manavata sharmsar | मानवता शर्मसार
मानवता शर्मसार
भेद कई हो गये जन-जन में अब ।
पीङा भरी रहती मन में अब ।
किसे कहे क्या है मन भय बना ।
सत्य की राह पर है नुकसान बना ।
मानवता शर्मसार है ।
दिल में भरी रहती हार है ।।
जीते हैं जीत की उम्मीदों में ।
हारते हैं हार की उम्मीदों में ।
अपनी उम्मीदों पर भारी ओंरो की ।
लोगों की बङी दिक्कत ये ।।
कोई अपनी धुन में चल नहीं पाता ।
अकेला रहे कहीं, क्यों रह नहीं पाता ।
वजह होती है हर चीज की जहाँ ।
बेवजह लोगों में कोई रह नहीं पाता ।
मानवता शर्मसार, दिल पर मार है ।।
सब को मस्ती की पङी है ।
दुर्गम हो आसान हो ।
लोगों को बस स्वार्थ की पङी है ।
मानवता लाचार खङी है ।।
- कवितारानी।

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