ऋत बदलती / Rit badalati
ऋत बदलती
नव दिन-आभा-भौर तिमिर से लङती ।
अठखैली, मटमैली सी दिन भर तेज चमकती ।
सप्ताह, मास, दिन कट जाते ।
ग्रीष्म गई, वर्षा गई, शीत संग फिर ऋत बदलती ।।
ऋत भई भाई आई उबकाई भी ।
ठिठुरन से भौर हुई धूप बहुत खाई भी ।
नित कर्म काज में लगे चलते कल हम ।
शीत भई करते रहते फिर भी करते कलरव हम ।।
नई ऋत का स्वागत गान करते ।
भावी भाग आज से लङते चलते रहते ।
कहते क्या आज, हर कहीं हर बात बदलती ।
कहते शीत लगी तो पता चला ऋत बदलती ।।
पहरा प्रकृति का सब और है रहता ।
मन मानव ऋतु का रंग बदलता ।
बंद आशियानों में कहां मति कुछ कहती ।
व्यस्त, आरामपस्त, स्वार्थपूर्ण संसार में समझ मरती ।।
सगे साथी अपने सब मतलब तक आते है ।
धर्म, अर्थ, काम स्वार्थ तक सब गाते हैं ।
बदलती फितरत का कभी ज्ञान होता ।
जब रंग अपना हल्का होता तो सब को अखरता ।
अखरते हुए रंग में फ़ितरत सबकी पता चलती ।
प्रकृति तो तब भी कहती ऋत तो हमेशा बदलती है ।
कुल करो अपने सामर्थ्य को, अनुकूल बनो तुम ।
लङो ना प्रकृति, प्रकार से अपने सत्कार करो तुम ।।
गिन लेगी शीत भी, शीत भी रहे जो ।
कोई पुछेगा नही जग में डीट रहे तो ।
पत्ता पत्ता कर पेङ मजबुत कर लो ।
शीत की टिस सह सको दृढ़ कर लो ।।
हर चरम पर फिसलन आती तो है ।
जो दृढ़ रहे अंत तक दुनिया गाती तो है ।
गिर गये तो उठनि मुश्किल है ।
ऋत बदलती है, सामर्थ्य बाकि है ।।
साहस संग सामर्थ्य बात यही कहती ।
हर समय, हर रंग में, ऋत बदलती है ।।
-कवितारानी।
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