Vishwash bada durlabh hua / विश्वास बङा दुर्लभ हुआ

 

विश्वास बङा दुर्लभ हुआ


फिरता जग में मैं आवारा हुआ ।

कहता अपनी खुद की मैं, मैं बावला हुआ ।

हुआ सच्चा मन का खुद का, खुद का सगा हुआ ।

खोजा जो भरोसा जग में फिर, दगा साथ मेरे हुआ ।

यही समझ आया, विश्वास बङा दुर्लभ हुआ ।।


मैं साफ मन का, तन का साफ दिखता ।

मैं शब्दों से साफ, सीधा अपनी बोली रखता ।

खोजता आईना अपना, कोई अपना समाज में खोजता ।

सब पर विश्वास करता मैं, मैं खुद के दम पर जीता ।

आखिर दोखा खाता, समझता, विश्वास बङा दुर्लभ हुआ ।।


जो जन्में आस-पास थे, हुए अब दूर कई ।

जो कर्म पथ पर मिले साथ थे, हुए नजरों से दूर कहीं ।

मैं उनमें अपनापन खोजता, मैं उनमें अपना खोजता ।

देता कर न्यौछावर सब ही, और फिर दोखा खाता ।

समझ आता आखिर कि, विश्वास बङा दुर्लभ हुआ ।।


फिर मन का मारा, हारा मन का मैं होता ।

रोता था कभी जो रवि अब ना रोता ।

साथ जीवन साथी, अपनी मैं कहता रहता ।

सहता जग के बोल बङे, छोटे मनके सबको कहता ।

समझा जो जीवन में वही कहता, विश्वास बङा दुर्लभ हुआ ।।


-कवितारानी।

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