फिर से फैल / fir se fail




फिर से फैल


फिर हासिये पर आके ना पा सका,

किस्मत के आगे फिर हार गया।

मेहनत ने मेरी की थी लङाई,

रंग मेहनत का चङा ना भाई।

हार गया हूँ फिर,

फैल हो गया हूँ मंजिल पाने में।

ना रास्ता बचा ना हिम्मत,

बस दुख है और आँसु- आँसु।

फिर लकीर पर करने से कुछ कदम का फासला रहा,

फिर से दरवाजे तक आके किस्मत लौट गयी।

फिर से अधुरे ख्वाब रह गये,

फिर से अधुरे सपने रह गये।

क्या करुं कुछ समझ नहीं आता,

कहाँ जाऊँ कुछ समझ नहीं आता।

दुखङा मन का सुनाऊँ कहाँ किसे,

जिसे अपना मन सुनाऊँ उसे रुलाऊँ कैसे।

फिर मन उदास आज,

आँखों में उमङ रहा सैलाब आज।

फिर से डर सताने लगा आगे का,

कैसे सपनों बिन जिऊंगा समझ नहीं आता।

क्या कमी थी मेहनत में,

काया में बुध्दि हीन हूँ।

क्या मुझे में नहीं वो क्षमता,

के पा सकुं मुकाम अपना।

बता दो मुझे करुँ क्या,

बता दे मुझे जाऊँ कहाँ।

बनाया मुट्टी का पानी-पानी मैं,

खङा होना चाहुँ भी तो डह जाऊँ मैं।

सपना है दौङ लगाने के, आसमां छुने के,

किस्मत से लङ मिट्टी की मुरत बनाऊँ कैसे।

कब ये दरिया दुखों का सुकेगा,

इन आँखों का पानी रुठेगा।

कब मुझे भी जीने का वक्त मिलेगा,

सपनों का घर यार मिलेगा।

सोंचा था इस बार पार हो ही जाऊँगा,

क्यों ना किस्मत महरबान होई।

हासिये पर आके क्यों आँखे भर आई,

क्यों ना मिला जहान खुशियों का।

क्यों फिर फैल हुआ, 

क्यों ना जहान मिला,

फिर से हासिये पर आके रुक गया।


-कवितारानी।



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