एकांत में यादों का पहरा / Alant mein yadon ka pahra
एकांत में यादों का पहरा
एकान्त में शांत जिन्दगी पसरती है,
आत्मा सन्नाटे से डरती है।
हाँ मेरी यादें रोज सिहरती है,
एक कंपकपी सी छा जाती है।
आँखे घने बादलों सी बरस जाती है,
फिर किसी अनजाने की याद आती है।
चेहरे बिना मुझे वो भाती है,
फिर मुझे उसकी बातें बुलाती है।
हाँ मुझे उसकी याद आती है,
मुझे उसकी याद आती है।।
आती है याद बहुत हमदर्द बन,
और दर्द का मेरे मर्ज बन।
पर कर्ज जैसे समाज का ले रखा है,
और उसी ठेके पर मेरा वजूद टिका है।
मैं आगे बङ-बङ पिछे आता हूँ,
तितलियों के पास जाता और इठलाता हूँ।
वो तितलियाँ जैसे टिमटिमाती है,
पास आती दूर जाती इतराती है।
फिर वो भी मुझ पर जैसे किसी कर्ज को दिखाती है,
और मैं फिर से शांत एकान्त में रह जाता हूँ ।
आता नहीं गाना तो सुनता जाता हूँ,
नाचता हूँ, भागता हूँ, दिन काटता हूँ ।
फिर जब सर्दी से सिहरन है बढ़ जाती,
और जिन्दगी की रातें मुश्किल से है कटती ।
फिर तभी तुम जैसे लोग जीवन में आते हैं,
और जितनी यायनाऐं झेली जीवन में उसे दोहरातें हैं ।
ऐसे में बस मैं सुनता हूँ, समय गुजारता हूँ,
और आप लोग अपनी ही बस सुनाते हो ।।
-कवितारानी।

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