लाइफ फाइट | Life fight
लाइफ फाइट
लाइफ की क्या झंड हुई पङी है।
पास में रहती लङकी और एटिट्यूड पर अङी है।
सोंचता मैं भी की मेरी ही घङी नहीं है।
यहाँ नाचति है मोर पंख फैलाकर, भले मोरनी सङी है।
वाह! जिन्दगी को क्या-क्या पङी है।।
अजीब सी दास्तान गढ़ रहे हैं।
छुट्टियाँ लगी है और मकान सङ रहे हैं।
मौज की खोज भोज बन पच गई।
लाॅकडाउन में सबकी अच्छे से बिगङ गई।
गई यादें सारी बचपन की,
क्या दिन थे वो कोई ना कचपच थी।
यहाँ तो उठ के छत पर आना।
भटकना निठ्ठलों सा और चाय पीकर फिर सो जाना।
बाहर जाओ तो वही बेकार की बातें।
फटे जुराबों सी जुबान वाले।
आता जाता कुछ नहीं और ज्ञानचंद है।
ध्यान एक पल का नहीं और खुद ही संत हैं।
संट है अपनी स्टाइल भी।
कहना नहीं और वहाँ रहना नहीं।।
अपन तो फिर घूम फिर छत पर आते।
सोंचते कहीं कोई मिले बातें।
दो दिन की ओर कर ले हरकतें।
जाना है फिर फिर वही सपने।
अपने तो अपने रहे नहीं।
जो कहते नहीं कहीं वो लिखते यहीं।
यही से अपना किस्सा शुरू।
चलो हो गया सुबह का, अब दिन शुरु।।
-कवितारानी।

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