मुझ पर जोर नहीं / mujh par jor nahi
मुझ पर जोर नहीं
इस दिल पर मेरा जोर नहीं
शौर है सब और पर मुझ पर जोर नहीं,
भौर है रोज मेरी पर मेरा कोई ठोर नहीं,
मुझ पर किसी का जोर नहीं।
हाँ मैं रोज उठ जाता हूँ किसी के उठाने से पहले,
खाना बनाता हूँ किसी के कहने से पहले,
जहाँ जाना होता है खुद चला जाता हूँ,
पूछने की मुझे किसी से जरुरत नहीं,
हाँ मुझ पर किसी का जोर नहीं।
दिखे लोग मुझे और मुझे वो दिखते हैं,
देख मुझे आपस में पूंछते हैं,
कहते होंगे, कौन अजनबी है,
पर मेरी भी किसी से अनबनी नहीं है,
वो है अपने रास्ते और मेरा कोई नहीं है।
दूर अपने गाँव से, खुद की नाव से,
अपने चाव से, चाप चलाऊँ मैं,
गाना आये ना, पर लिखता जाऊँ मैं,
हाँ अकेले में गुनगुनाऊँ मैं,
क्यों मुझ पर किसी का जौर नहीं।
जैसे तैसे कर शाम आती है,
एकान्त में जिन्दगी गाती है,
वो पुरानी यादें दोहराती है,
बोझ सी जिन्दगी, जोर से जीती है,
और कहती है,"मुझपे है जोर कई।"
पर अब मैं हूँ वहाँ और नहीं,
और अभी मुझ पर कोई जोर नहीं।
हाँ याद आते हैं वो दिन दुपहर शामें,
कैसे मुश्किल से कटती थी मेरी रातें,
कहने को पास नहीं था कोई, किसे कहूँ अपनी बातें,
तभी हर पल लगता था जीना है मुश्किल,
और लगता था मुझपे है जोर कई।
लिखता था अपने गमों को छुपाने को,
पढ़ता था खुद को बनाने को,
वो बंद कमरा और वो छोटी सी खिङकी,
खेलुओं की छत और रोज की छिङकी,
समय की कमी और प्यार की कमी,
जिन्दगी रोज भरी जाती थी और रहती नमी,
उसी गमी को याद कर, याद आता है कि,
तब था मुझ पर जोर कई।
और लिखूँ और ढूबता जाता हूँ,
गहराई में जाके घूटता जाता हूँ,
आखिरी साँस तक के थे दिन काटे,
खुद की हिम्मत को खुद ही बांटे,
लम्हे-लम्हे साल बने,
सुनी ऊपर वाले ने और मेरे दिन बने,
बाहर आया बंदिशो के जहान से,
जैल कहूँ या कहूँ नर्किस्थान से,
तब से मुझ पर कोई बोझ नहीं,
अकेला हूँ पर अब मुझ पर कोई जोर नहीं,
आजाद हूँ पर अब मुझ पर कोई जोर नहीं,
और अब मेरे दिल पर बोझ नहीं,
मेरे दिल पर किसी का जोर नहीं।।
-कवितारानी।

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