सब बैमेल है | Sab bemel hai
सब बैमेल है
शब्द है शब्दार्थ है, लिखे मेरे पन्नों का भावार्थ है।
कहने को बहुत गर्त है, पर पढ़ने पर लगता जैसे सब व्यर्थ है।
सब बैमेल है, दुनिया जैसे कोई जैल है।
रास्ते है कई, मंजिले हैं कई, जाने की नहीं कोई रैल है।
मन के मारे सब हारे, जाते सब अपनी ही टेल है।
लगता है मुझे मेरी सोंच कर ही, सब बैमेल है।।
हवायें है पूरब और मैं जाता पश्चिम को।
सुर होते पुराने और मैं गाता नये को ।
छुट चुकी जिन्दगी को पाने के लायक है।
जा रहे कहाँ, कर रहे क्या, जाना है कहाँ।
सोंचे जब इन सब के बारे में तो लगता है, सब बैमेल है।।
होता ऊजाला नींद आती, सुरज की रोशनी आँखे चुभाती।
रात अँधेरा तन भाये, और घनी काली रात मन डराये।
शीतल हवा बङी भाती, आँधी आती और डराती जाती।
जो चाहे वो मिल ही जाता है, पर छोटी कमी से मन रूठ जाता है।
सब पर जब सोंचे बैठ तो लगता है, सब बैमेल है।।
बादल छाये मन को भाये, कङके बिजली मन सहम जाये।
बारिस का मौसम तन भिगाये, कर्म पथ पर फिसलें ना डर सताये।
मौज की खौज मन रोज करता, डरता रवि दिन रात को चलता।
कुछ छुटता रहता कुछ आगे बढ़ता, कल से डरता क्या करता।
सोंचता बैठ अकेले में जब लगता अपना सब बैमेल है।
लाइफ का अभी नहीं कोई मैल है, अभी सब बैमेल है।।
-कवितारानी।

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