संध्या सार | sandhya saar



संध्या सार


एक ओर गुरू शिखर,

जो कह रहा स्थिर रहो,

डटे रहो, गर्व से बने रहो।

दुजी ओर ढुबता सुरज,

सारी आकांक्षाओं को समेट,

अस्थिरता, नश्वरता का बखान कर रहा।

एक ओर मन है,

जो स्वतंत्रता की पुकार कर रहा,

सम्मान को तलाश रहा।

दुजी ओर तन है,

जो नश्वरता का भय दिखा,

जाते समय की दुहाई दे रहा।

है उलझन एकान्त करे क्या,

शांत मन पर तन का बोझ बयान, 

कहाँ जाये लिखता मैं।

शाम हो गई फिर,

फिर उस आध्यात्म की ओर,

कमाऊँ या कर्म करूँ, मैं करूँ क्या।

एक ओर जङ पहाङ, 

एक ओर ढलता रवि,

जर्जर चट्टानें, अस्थिर समय करूँ क्या।

आज फिर क्षितिज पर निगाह,

पुरब की ओर देख रहा,

पश्चिम को जीता ओर बताऊँ क्या।।


-कवितारानी।



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