Sham ka nazara aor main / शाम का नजारा और मैं
शाम का नजारा और मैं
भगवा औढ़े पश्चिम, मध्य में चाँद और पूरब में गुरु शिखर ।
एक जहाज जा रहा ढूबते सूरज की ओर से पूरब को ।
मन ही मन ईच्छा हुई घर जाने की, पूरब की ।
घर की याद आई और गाँव की भी ।
फिर सोंचा कौन वहाँ मिलेगा अपना ।
और विचार आया कौन मेरा बचा होगा वहाँ ।
सर्द हवाएँ तेज हुई, सिहरन बढ़ने लगी ।
बङा सा पहाङ ये माउंट आबू अब अँधेरे में खोने लगा ।
पश्चिमी लाल चुनरिया, काले रंग में बदलने लगा ।
मध्य का चाँद और चमकने लगा ।
और वो विमान कहीं पूरब को जाने को गायब हो चुका ।
मैं अकेला सोंच रहा, तुम्हारे बारे में सोंच रहा ।
कुछ देर और बैठना चाहा था ।
कुछ देर और सोंचना चाहा था ।
फिर सर्द हवाएँ और बढ़ गई, और अँधेरा भी ।
फिर लोगों की सोंच आई, लोग क्या सोंचेगे मुझे अकेला देख ।
और मैं अपने विचारों को छोङ वही ।
फिर अपने रोजमर्रा के काम में लगा ।
खाना जल्दी खा लिया था ।
अब ईश्वर की आराधना का समय था ।
कौन मेरे अकेले का सहारा उनके सिवा ।
अब भी उन्हीं सा साथी, कोई मुझसे मांग रहा ।
कमियाँ हैं उन्हें पूरी करना चाह रहा ।।
- कवितारानी ।

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