उङ-उङ रे परिन्दे | Ud Ud re parinde
उङ-उङ रे परिन्दे
उङ-उङ रे परिन्दे, उङ-उङ रे परिन्दे।।
क्या बैठा है डाल पर, क्यों जाता अपनी माँद में।
क्यों चिपका रहता अपने माँ बाप से।
उङ-उङ रे परिन्दे, उङ-उङरे परिन्दे।।
पंखो से बङा लगता, लगता है सुन्दर परिन्दा।
खाता पिता खुब रहता, रहता क्यों है शर्मिंदा।
ना आँख का अंधा, ना पंख से पंगु।
ज्ञात है ढाल ढाल, जानता है पात पात।
फिर क्यों बैठा हार तू, क्यों बैठा हार तू।
उङ-उङ रे परिन्दे, उङ-उङ रे परिन्दे।।
हौंसले की उङान भर तु, मन में तू जोश भर।
आसमान पुकार रहा, अब ऊँची तू उङान भर।
कह रहा हर साकी, हर ढाल है कह रही।
उल्लास भरती डालियाँ कह रही, उपहास करती शाखाऐं कह रही।
सुन मन की, कर भरोसा, खुद ही उङ।
उङ-उङ रे परिन्दे, उङ-उङ रे परिन्दे।।
कोई साथ ना आयेगा, कोई पास ना आयेगा।
आयेगी आँधी जो, उङा ले जायेगी पेङ जो।
उखङ जायेगी डालियाँ, और उजङेगी माँद यों।
कुछ नहीं रह जायेगा, आसमान ही बचायेगा।
कर फैसला आज फिर, फिर उङान भर।
उङ-उङ रे परिन्दे, उङ-उङ रे परिन्दे।।
आसमान के छोर नाप, सबको पिछे छोङ डाल।
रख भरोसा खुद पर ही, मान अपनी खुद की ही।
आजमा ले ताकत आ, आज उङ के दिखा।
चुप कर दे दुश्मनों को, खुश कर दे तू अपनों को।
अपनी मौज में, अपनी खोज में।
अपने जोश में, अपनी ओज में।
उङ जा, उङ जा, उङ जा।
उङ-उङ रे परिन्दे, उङ-उङ रे परिन्दे।।
-कवितारानी।

टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें