वो मेरे गाँव के दिन | Vo mere ganv ke din
वो मेरे गाँव के दिन
वो चौराहे की चाय, सब्जी मण्डी के पतासे और ढाबे का खाना।
याद आता है मुझे अपने दोस्तों की टोली में समय बिताना।
वो बरगद का पेङ, ताश का खैल और गप्पे लङाना।
याद आता है मुझे बेवजह दोस्तों को चाङाना।
वो कुऐ की जंप, मोहल्ले का हैण्डपम्प और सबको भिगाना।
याद आता है मुझे मेरे गाँव का बिता जमाना।।
वो सुबह की दौङ, दुसरो से होङ और जीत की जोङ बिठाना।
याद आता है मुझे खैल-खैल में आपस में झगङ जाना।
वो किताबों का बोझ, होमवर्क रोज और बहाने बनाना।
याद आता है हर बात को दोस्तों में मजे से बताना।
वो बेवजह भटकना, हर कहीं अटकना और घर पर डाट खाना।
याद आता है मुझे मेरे बचपन का जमाना।।
वो खैत का काम, पेङ के आम और इमली खाना।
याद आता है मुझे अपने दाँत खुद खट्टे कर जाना।
वो दिन के सपने, पेङ पर अपने और पक्षियों को खिलाना।
याद आता है मुझे दोस्तों संग शहद तोङना और दंश खाना।
वो अपनी मौज, दौङ भाग की खौज, और बेवजह इतराना।
याद आता है मुझे अपने बचपन का मंडराना।।
वो कुछ खास मेरे, पार्टियाँ मेरी और टूर मेरे।
याद आते हैं मुझे हर लम्हे जो खास रहे मेरे।
वो उत्सव सारे, मैले सारे और जुलूस सारे।
याद आते हैं मुझे जो जीये अपनी टोली संग पल सारे।
वो मोहल्ले की लुका छूपी, पकङम पकङाई और तारम तार।
याद रहेंगे मुझे मेरे बचपन के मेरे गाँव में बिताये वो दिन सारे।।
-कवितारानी।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें