सुनी, भाग-2 मुलाकात / suni, part-2, mulakat

सुनी, भाग-2 मुलाकात


मैं तुफानों को समेट,
पुरब से पश्चिम तक होके,
देख आया जीवन बयार सारी,
अब मध्य में पहाङों की बारी।

प्रथम दृष्टा मनोहर थी,
आभा उसकी नव योवन सी,
श्वेत वर्ण कंचन थी,
अनंत जीवन वो सुनी थी।

शर्माई कुछ-कुछ घबराई,
पास आकर बात बढ़ाई,
मुलाकात में कुछ खास ना था,
पर जीवन का यह मोङ था।

मुङ जाती अपनी धुन में,
स्वार्थ था अपने गुन में,
कर्तव्य पथ पर अटल दिखी,
ज्ञानी सी थी पर नव सीखी।

हर बात पर अपनी दात लेती,
खुलकर हॅसती मन हर लेती,
रहती ना उसकी कहीं कोई बात अनसुनी,
वो पहली मुलाकात में लगी सुनी।

एक शब्द में उसका अंत नहीं,
बातों में उसके सार कहीं,
हार नहीं मानती थी,
खुद को हमेशा संवारती थी।

अंजन नित नयन करके,
आइने को रंग करके,
आइने को आते निहारती थी,
बार-बार खुद को संवारती थी।

कल का मैल आज ना भाता,
जो भी पहने खुब सुहाता,
आता ना था वस्त्र विधान भारी,
पर अपनी मनमर्जी में कभी ना हारी।

केश सज्जा की निपुण नारी,
साङी पहन थी सबकी प्यारी,
शाला उत्सव की वो गाथा,
उसके बिना प्रांगण सुना कहलाता।

हर चीज पर अपनी राय रखती,
अच्छी सिख को ही तकती, 
तकते सब नयन भर-भर कर,
रोकती नहीं सिर चढ़ कर।

समय साथ बातें बढ़ी,
पर मुझसे हर बात पर लङी,
अङी रही खुद की साबित करने को,
खङी रही जब कभी हारी तो।

जाने कैसी मुलाकातें थी,
अनजानी से दिल की बातें थी,
कुछ मुस्कान मेरी ले आई वो,
मन पर गरजी और छाई वो।

मित्र बने अनजाने में जाना,
रुकावटों को स्वतः पङा जाना,
एक नीरस मेरे जीवन में,
अब आवाजें बस उसकी सुनी।

एकरव भरी जीवन मेरा था,
एक शौर भरी सुनामी थी,
कुछ माह साथ रही,
जाना की अर्न्तमन कितनी सुनी वो।

आजाद उसका पहनावा था,
पर अर्न्तद्वन्द्व को जाना था,
फिर रही ना मेरे कहा सुनी,
वो गहराई तक मिली सुनी।

आज बैठ एकान्त मे लिखता,
घोर संघर्षों को तकता हूँ,
मुलाकातों में मैंने थी जो सुनी,
अब जग से ना रहे अनसुनी।

एक आवाज उठे बदलाव की,
अधिकार की, सही बरताव की,
मानवता की सही पहचान हो,
समाज में अब समभाव हो।

वो अपने पथ पर जागी मिली,
मेरी खोई काया फिर खिली,
उससे प्रेरणा पथ पाकर,
अब कह रहा दुर आकर।

कुछ दिन अब माह में बदले,
रुप, रंग और भाव भी बदले,
एक नियम अब हम शाला में,
मिलते कुछ भ्रम और मधुशाला में।

पर अभी भौर आभा वो खोई दिखती,
जग, रब निहारे वो सोई दिखती,
कुछ खोया सा रंग चमक खोता,
उसके मुख का चाँद सोया दिखता।

दिन बढ़ता पहर भी होती,
हर दिन वो मस्त मलंग सी होती,
खुब हॅसी ठिठोली करती,
अपनी खाली झोली भरती।

अक्सर चिढ़ती और चिढ़ाती,
मुझको हर पल अब वो भाती,
पर कहीं किसी टिस में लगती,
पुछे कई पर कुछ ना कहती।

मुलाकातें अब बाहर भी होती,
महफिलें अब उसी से सजती,
कौन अपना, कौन पराया,
सबको अपनी धुन में पिरोया।

महिनों का साथ होता सा,
सत्र अब समाप्त होता सा,
खुब मौज सी पार्टियाँ करते,
कुछ खुलकर, कुछ दबे से हॅसते।

धीरे-धीरे जान गया,
में गहरे राज पहचान गया,
कैसे उसकी इच्छायें दबी,
कब से वो फिर सुनी रही।

मित्र मन का और सहारा,
कभी मैं हारा तो उसका सहारा,
हर बात अब स्पष्ट की,
मैंने उसकी जब सुनी थी।

कहती रही बेरोक-टोक,
कभी डरी सी तो कभी ओत-प्रोत,
एक जब मैंने किस्से जाने,
उसके जीवन के हिस्से माने।

बदलाव हुआ नहीं पर ये चली,
हवाओं के विपरीत उङी,
यही कहानी शुरु की,
मैंने किस्सों मे जीवनी शुरु की।

कुछ कल्पनाओं में जो जिक्र था,
उसके शब्दों में जो फिक्र था,
मैंने उन्हीं को अपनें पन्नों पर जगह दी,
सुनी हुई बातों को ही वजह दी।

मुलाकात से प्रेरणा तक मैंने बताया,
आगे का हाल फिर आयेगा,
पहसे संघर्ष वर्णन सुनते हैं,
हम पुर्ण गाथा बुनते हैं।।

-कवितारानी।

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