सुनी भाग-5 बाल विवाह / suni bhag-5 Bal vivah

 सुनी भाग-5 बाल विवाह


आने वाला था परीणाम साल का,

उसके पन्द्रह साल के अंजाम का,

खुशियाँ आशा बन पलकों पर ठहरी थी,

बचपन से सिखी बातें बह रही थी।


कैसे-कैसे पढ़-पढ़कर यहां थे पहँचे,

दौङ-भाग से गुंथे थे रेशे,

अपने बालपन की बातों में बचपन था,

किशोरी जीवन दहलीज पर था।


शुरु हुआ था नव योवन वो,

आभा से उसकी हर योवन खिंचता जो,

खिंच रहे थे रसुखदार भी,

ले बेङियां अँधकार की।


एक आया सौदागर देह खरीदने,

सौ टके सोने पर मौल रखने,

अभी कच्चा था जो खान में,

नजर जमाये था वो सामनें।


अपने रिश्तेदारों को भेजा,

समझाया बापु को और रोज टोका,

हर जगह अब बेटी की सुनते-सुनते,

बापु पसीजा मन को समेटे।


समाज में सब किशोरियाँ परनी थी,

तेरी बेटी कब परनेगी,

कब तक तु घर रखेगा,

कैसा बाप है क्या कंवारी रखेगा।


हर जगह मां भी सुनती,

मन मार-मार बेटी को चुनती,

आने लगे बुरे ख्याल भी अब,

क्या सच है जो जग कहता सब।


ख्वाब लेकर सुखी संसार के,

हॅसकर बार-बार गले लगाकर,

बेईजी बेवजह बना ही डाला,

समधन कर घर पर ढेरा डाला।


बेटे की बात कम थी,

बेटी की परवाह कम थी,

एक समाज साथ चलना था,

बढ़े होने का मान रखना था।


एक दो बार मना किया,

आना कानी कर बात छोङ दी,

सबने समझाया रसुख उसका,

कुछ बापू का मन, हुआ उनका।


घर पर बोले सबको बताया,

बहन ने माना भाई का ताना,

मां ने भी हामी भर दी,

बापु ने ना के ना कर दी।


सुनी सुनकर निचे आई,

गुस्से से बोली और रोई,

नहीं जाना छोङ घर को,

मुझे यहीं किसी कोने में रहने दो।


पिता से बोली, मां से बोली,

बहिनों से साथ के लिए फेलाई झोली,

भाई से मांगा अपना जीवन,

कहे और किससे दुख जीवन।


भार पङी चिंता बङी,

रोज एक-एक कर कटती घङी,

दसवीं पास का रिजल्ट आया,

कुछ आशाओं को साथ पाया।


बना सहारा आगे पढ़ने का,

अच्छा परीणाम दिया आगे बढ़ने का,

अूब मुझे ना बांधो अभी बंधंन में,

मुझे जीने दो खुश जीवन में।


खुशी की लहर में कुछ थे मानें,

पर लङके वाले एक ना मानें,

इसी साल हाथ पीले करो,

हमें आगे और डिले ना करो।


कुछ पढ़े लिखे संस्कार जागे,

बिटिया के आँसुओं को भी भांपे,

समाज की एक बात रखने को,

शर्त रखी की आगे भी बढ़ने दो।


कुछ माने कुछ ना मानें,

लङके वाले लगे जमानें,

जैसे तैसे शादी तो हो,

फिर देखेंगे जो हो सो हो।


पिता नाप तोल के थे पक्के,

खरी की कि आगे ना हो धक्के,

पुरी पढ़ाई तक नहीं भजेंगे,

हम सुनी को पास रखेंगे।


सुंदर सुशील बहु को देख,

सव माने वो कुछ रीझ,

चाल बनाई मन ही मन,

और बात मान ली श्रीमन।


विरोध के सुर बापु ने दाबे,

डाट फटकार रिश्ते साधे,

रोने-धोने का असर नहीं,

कह के मनाया अभी भेजेंगे नहीं।


सुनकर कुछ आराम तो आया,

सुनी के मन पर अब कुछ छाया,

तेज धुप दुख सी थी,

अब बाल मन पर खुशी सी थी।


सखियाँ सारी हॅसती गाती,

रिश्तों नातों की एक जमीं झाँकी,

दुर-दुर से लोग आये,

शादी के बंधंन की करे बधाई।


अंतरमन में दबी सी सुनी,

कोई पुछता कैसा है वो सुनी,

ना पता शक्ल का,

ना उसकी मुरत का।


एक अंश भर भी देखा नहीं,

चिढ़ सी हुई जबसे सुना युँ ही,

मुझे नहीं जाना उसके पास,

नहूीं रहना जीवन भर उसके साथ।


इसी के साथ घोर विप्लव,

समाज का कलंक और उपद्रव,

आतंक का एक हाल सा,

लुट रहा बचपन होता कुर्बान सा।


प्रश्न उठते कवि मन में फिर,

बात होती निरर्थक जीवन में फिर,

गिर कर कैसे में यहाँ तक आया,

देख पाप क्यों ना गरमाया।


कैसी ये परिपाटी है,

ना दिया बना ना बाती है,

और लोग रोशन करने को,

आग लगाते नव दीपक ज्यों।


घोर अंधकार में ही चलना,

हम गिरे तुम्हें भी गिरना,

बंधंनो का यही सार है,

बंधंन तो आसमान पार है।


सार्थक शब्द निरर्थक कार्य किये,

समाज ने फिर जीवन सिये,

एक ही अग्निकुण्ड के,

फेरे किये कोरे पिण्ड के।


कन्यादान वो पिण्डदान सा,

धान फेके भाई ने महान करता दान सा,

मांई ने महानता को जन्म दिया,

रोके सबने अपना नाम किया।


अब बोझ सबका हल्का था,

दो बातें याद कि पर अब आराम था,

दो दिन बाद लो भी आये थे,

पर अब शादी से ना घबराये थे।


कौन झांके अन्दर मन के,

तन पर रंगे कपङे तन के,

मंहगे से आभुषण हैं,

किसे पङा मन में क्या रण है।


वो भोली भाली अब खाली थी,

रहती दबी-दबी घरवाली थी,

नजरिया सबका बदला-बदला,

मन में दबी-दबी अब वो अबला।


कहती नहीं कुछ ज्यादा अब,

खाना खाती पर आधा अब,

सब पुछ रहे ससुराल कैसा,

डर जाये भागे मुहॅ छुपाये-छुपाये रैसा।


सबको लगता शादी से बदली-बदली,

बातों से हॅसती मन लगाती बनती पगली,

बैठ अकेले खुद को खोती, 

अब से वो रोज ही रोती।


जैसा की बात रखी,

पढ़ाई तक भेजेंगे नहीं सखी,

सारी सखियों संग फिर से रंग में,

कुछ भुलती, कुछ झुलती संग में।


अपने मन की मारी सी,

रहने लगी कुछ हानी सी,

किससे शिकवा, किससे शिकायत,

हॅसती रहती मांगती जीवन रियायत।


अब आगे पढ़ना था,

सब से भी अब लङना था,

कहना हुआ बहुत बार ये,

मुझे ना जाना ससुराल में।


अपनी धुन की धुनी,

किताबों में ही नई साथी चुनी,

पढ़ती रही लङती रही अब से वो,

बाल विवाह के चुंगल में थी वो।


-कवितारानी।

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