दो गज जमीन / do gaj jameen

दो गज जमीन


दो वक्त का खाना हुआ, 

सोना हुआ छठवे पहर को।

लगा रहता अपनी धुन मैं,

हरना हुआ जो अपने खुद को।

कहता किससे दो पग नाप ली मैंने।

पैरों तले थी जो दो गज जमीन।

मेरी नहीं ना तेरी थी।

खुनी हुई जो पहरी थी।

किसी का कोई साथी ना था।

मेरे पास कोई मेरा ना था।

तब भी अकेली कुटिया थी।

वो मेरे पैरों तले।

दो गज जमीन ही थी।

आज भी आगे बढ़ता हूँ।

रहता हूँ खुद का खुद में मैं।

सुनता हूँ सबकी बातें।

कहता हूँ अपनी मैं।

रहने को रोटी कपङा हो।

मकान के लिए खुद हो।

दो गज जमीन।।

-कवितारानी।


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