खुद में सिमट गया हुँ / KHUD MEIN SIMAT GAYA HUN
खुद में सिमट गया हुँ
अपने बचपन से निकल, अपनी जवानी में सिमट गया हुँ।
आजादी के सपनों से निकल, अपनी वास्तविकता में सिमट गया हुँ।
वैसे एक समाज लेकर बढ़ता हुँ मैं, पर लगता है आजकल खुद में सिमट गया हुँ।।
वैचारिक क्रांति लिये हुँ, मैं दुनिया बदलने के ख्वाब सिया हुँ।
मौका ढुँढता रहता आगे बढ़ने का और रुकावटों में उलझ गया हुँ।
लेकर चलना चाहता था सबको साथ में, पर आज लगता है, खुद में सिमट गया हुँ।।
क्या चाहता हुँ भुल गया हुँ, क्या मानता हुँ भुल गया हुँ।
अपनी सीमायें बनाने लगा हुँ, अपने दिल की सुनने लगा हुँ।
कभी चाहता था सबको खुश करना, पर लगता है अब मैं खुद में सिमट गया हुँ।।
बहुत कोशिशें कर ली मैंने, बहुत दुनिया की सुन ली मैनें।
खुब भलाई के काम किये, और बदले में बस भुला दिये।
मैं इन सबको ही तो याद करता हुँ, अब मैं खुद में सिमटा महसुसु करता हुँ।।
जिससे कहो वो सुनाने लगता है, जिसे सुनों दबाने लगता है।
अपनी कह दो तो चिढ़ जाते हैं, मस्त अपने मैं तो लोग जलने लगते है।
फिर कैसे मन को शांत करता, मैं जानता हुँ इसी सोंच से अब खुद में सिमटा हुँ।।
हाँ मन दुखी भी होता है, अपना रहे जग यही मन कहता है।
सब दिल से रहे साफ यही तो मैं चाहता हुँ, रह बार दोखा खाता पछताता हुँ।
बैठ अकेले मनन करता रहता हुँ, फिर सोंचता हुँ, अच्छा है खुद में सिमटा हुँ।।
ये सिमटा हुआ रवि भी ठीक है, किसी से मतलब नहीं खुब है।
आत्म मंथन के अलावा बोझ नहीं, खुद की चिंता और कोई ओज नहीं।
अकेला हुँ मैं सही यही जानता हुँ, खुद में सिमटा हुँ, हाँ मैं मानता हुँ।।
-कवितारानी।
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