मन का मैल / man ka mail
मन का मैल
मिट्टी का हूँ पिघल जाता।
कोई प्यार से बोले हॅस जाता।
फर्क ना पङता मन का अब।
मन का रहा ना ये मनका अब।।
छोर दुर अब साँसे अधूरी।
बेठोर जिन्दगी तन की पहरी।
रुक-रुक कर आती जाती।
दिल को भरकर बह भी जाती।।
खैल-खैल में याद आया।
समय बिताया खोई काया।
मन मांजी मांझ गया जब।
अब चुभती रोशनी आवरण नहीं अब।।
बेपरदा मन बैसाखी खोजे।
आस लगी है जिने की जो।
लुट तो गया कण-कण से वो।
टुट रहा पल-पल बैरागी जो।।
कौन घङी कौन काम आया।
खोज रही निर्मोही बन काया।
डर लगता कोई शिकार ना होवे।
ये मनका किसी का बैरी ना होवे।।
सब ओर से आहट आती।
बैरी जग मे बहुत से भरते छाती।
अब किसको मन की सुनाये।
एकांत बैठ लिखते जाये।।
-कवितारानी।
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