वैचारिक मतभेद / vecharik matabhed
वैचारिक मतभेद
मैं किनारे खङा अकेला सोंच रहा,
सोंच रहा खुद के बारे में और जमाने के बारे में।
मैं खुद को अकेला पाता हूँ,
इस भीङ भरे जग में खुद को किनारे पाता हूँ।
क्रांति का संदेश साँसो में भर कर,
मन को विचारों से लाद आता हूँ।
सिखा ज्ञान बताता हूँ,
और जग को जगाता हूँ।
मैं उलझा ही जाता हूँ, मैं उलझ जाता हूँ।
जो बखान करते ज्ञान विज्ञान का,
जो रोज अलापते अपनेपन की,
जो नैतिकता के पुजारी है।
जो मानवता प्रकृति के रक्षक हैं.
वो सब मेरे विरोधी हो जाते है।
वो सब मुझसे रुठ जाते है,
वो मुझे निचा दिखाना चाहते हैं।
वो मुझे गिराना चाहते हैं।
मैं विरोध सहता और रुकता हूँ।
सोंचता हूँ, विचार मंथन करता हूँ,
कि आखिर क्यों मेरा उन्ही की बातों को अपनाने का विरोध है।
फिर मैं पाता हूँ यो वैचारिक मतभेद है।
वैचारिक मतभेद ऐसा है कि सुना ना जाता है।
अच्छाई को कुचला जाता है,
ईर्ष्य़ा से भर कर लङा जाता है।
किसी की अच्छाई नहीं भाती है।
किसी के व्यक्तित्व से लङाई हो जाती है।
किसी को साथ ना सहा जा सकता है,
बुरों के बीच कुचला जाता है।
वैचारिक मतभेद मन भेद बन जाते हैं।
आपसी लङाई का कारण बन जाते हैं।
द्वेष का यहीं जन्म होता है।
अनैतिकता का फैलाव बढ़ता है।
विचार शध्द कम ही भाते हैं।
मन के मैल छुप नहीं पाते हैं।
शब्दों से टकराव बढ़ता है।
बातों से मन दुखता है।
कुटील लोग आनन्द पाते है।
बुरे लोग खुशी मनाते है।
अच्छाई को कुचल जाते है।
वैचारिक मतभेद बुरे है।।
-कवितारानी।
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