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पतझङ

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पतझङ वो पत्ते डाल पर पक गये। हवा आई हिले और गीर गये। वो जो नाजुक, हरे, कोमल थे। वो जो पोषण ले डाल पर पले थे। देखे थे कई मौसम जिन्होने, वो सिहरन कर ठण्ड में अकङ गये। मौसम बदला, पतझङ आया और गिर गये।। ये कई तुफान से टकरायें हैं। ये बारिश में भीगे, ओले भी खाये हैं। जो फल लगे पेङ पर,तो पत्थर भी खाये हैं। फिर बंसत में मुस्कायें हैं। शीतल पवन संग झूमे हैं। फुल खिली डाल पर, मनमोहक सुगंध पाये हैं। आखिर जब पक गये पेङों पर, और जब पतझङ के मौसम में आये तो, गिर कर डाल से जमीन पर आये हैं।। हमारा जीवन भी इन पेङ के पत्तों सा होता है, जो जीवन रहते हर सुख-दुख को सहता है और परिवार से जुङा रहता है। जब अपना पतझङ आता है अर्थात जब यहाॅ जीवन पूरा हो जाता है तो हम भी इसी धरा में मिल जाते हैं। -कविता रानी।

हो सशक्त तुम / Ho sashakt tum

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Click here to see video for this poem   हो सशक्त तुम  ना अबला हो, ना निर्बल तुम।  हर युग की तस्वीर तुम। हो हर घर की तकदीर तुम। ना समझो खुद को कमजोर तुम। हो सशक्त तुम, हो सशक्त तुम। । ये युग बदलते देखें हैं । ये जग बदलते देखे हैं।   मैंने कईं मंजर बदलते देखें हैं।  देखी हर कई तस्वीर ये। हो भाग्य तुम, हो सशक्त तुम ।। तुम बिन घर -ऑगन सुने हैं।  तुम बिन परिवार अधूरे हैं।  तुमसे ही रोनक मंदिर की। तुमसे शान देश-दुनिया की। तुम्ही मूल हो, तुम्ही शक्ति हो।। तुम सहती हो, सहनशील तुम।  तुम कर्मठ हो, कर्मशील तुम। तुम ममता हो, ममत्व तुम। तुम देवी हो, दिव्य तुम। तुम शक्ति हो, सशक्त तुम। । कोई युग भूल ना पायेगा। अनदेखा कर रह ना पायेगा।  तुम नहीं तो मानवता नहीं।  तुम नहीं तो कुछ नहीं।  है सत्य यही, ये जग सशक्त तुमसे ही।। -कविता रानी। 

कर्म पथ पर

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  कर्म पथ पर अग्नि पथ पर बङ-बङ, बाधाओं से लङ-लङ, मैं पथिक सिखता जाता हूँ,  नित कर्म पथ पर बढ़ता जाता हूँ।  हर्ष उल्लास को समेट, दुख-दर्द को सहेज, मैं अक्सर नई सिख पाता हूँ,  नित कर्म पथ पर बढ़ता जाता हूँ।  कुछ रोङे आ जाते हैं,  कुछ लोग राह भटकाते हैं,  मैं उन्हें लिखता जाता हूँ,  नित कर्म पथ पर बढ़ता जाता हूँ।  जो मिलकर बन जाते खास, जो सहयोग करते रहकर पास, मैं उन्हें मन मंदिर में बसाता हूँ,  नित कर्म पथ पर बढ़ता जाता हूँ।  कुछ कपटी भी भीड़ जाते हैं,  कुछ दुष्ट अनायास दुख दे जाते हैं,  मैं उन्हें भूलता जाता हूँ,  नित कर्म पथ पर बढ़ता जाता हूँ। । -कविता रानी। 

स्वर्ग सा सुन्दर

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  स्वर्ग सा सुन्दर  कोई पूछे मुझसे स्वर्ग क्या ? कोई कहे स्वर्ग से सुन्दर क्या ? मैंने जो देखा फिर वो कहूँ।  मेरी मन की ही बात कहूँ।  'स्वर्ग सा सुन्दर होता ; और क्या? हिमालय सा सुन्दर होता; और क्या ? यहाँ  वैद हैं , यहाँ वैदिकाएँ हैं।  यहाँ औषधि  है , यहाँ  हरियाली है।  ताजगी का यहाँ जैसा अहसास; कहाँ  ? हिमालय स्वर्ग सा सुन्दर और कहाँ ? यहाँ नदियां कलरव कर गाती  है।  जीव-जगत को ये  भूमि भाती है।  आनंद की यहाँ सोगात है।  स्वर्ग सी सुन्दर ये धरती है।  यहाँ  देवी देवता बसते हैं।  यहाँ महाकाल , योगी रहते हैं।  यहाँ बादलों की सेर है।  यहाँ सुन्दर सवेर है।  यही स्वर्ग सा सुन्दर है, यही स्वर्ग है ।   हिमालय स्वर्ग सा  सुन्दर है।  - कविता रानी। 

हसीन वादियां

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  हिमालय की हसीन वादियां  सुखे रेगिस्तान से निकल, हरियाली की चुनरी देखी। मैंने भारत माँ के कंधो पर, हसीन वादियां देखी। मैंने माँ के आँचल में,  हिमाचल-अरूणाचल में,  मनमोहक सुखद अनुभूति देखी, मैंने हिमाचल में हसीन वादियां देखी।  यहाँ पहाड़ विशाल हैं,   बादल भी लगते गुब्बार हैं।  मैंने वहां चांदी सी बर्फ देखी, मैंने हिमाचल में हसीन वादियां देखी।  गर्मी में भी सर्दी सा, यहाँ मौसम रहता अद्भुत सा। मैंने यहाँ के लोगों की मेहनत मुस्कान देखी, मैंने हिमाचल में हसीन वादियां देखी।  मैंने हवा अठखेलियाॅ की, गंगा मैया में डूबकी ली, तन शीतल, मन शीतल कर शांति ली, मैंने हिमाचल में हसीन वादियां देखी। । - कविता रानी। 

अग्नि देव

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अग्नि देव   देव लोक सब देव विराजे, मृत्यु लोक पाप भारी। कोई दाह कर पुण्य पाये, कोई भस्म लगा भोला भारी। सब मिटे राख होकर, अंत समय सब खाक है। मत कर अभिमान; मान कहना, अग्नि देव महान है। थे पूर्वज ज्ञानी, बङे विज्ञानी,  हवन किये सुबह-शाम वे। तन कि ज्वाला, मन की अग्नि, करते स्वाहा सम्मान से। है त्रिनेत्र में, है पृथ्वी के गर्भ में,  है उदर की आग ये। मत कर अभिमान;मान कहना, अग्नि देव महान है। है प्रलय के पहले वो, है प्रलय के बाद,  सृष्टि के निर्माण में वो, है सबके निर्वाण के बाद। मृत्युलोक के वियोग में साथी, स्वर्गलोक के साथी वो। मत कर अभिमान; मान कहना, है अग्नि देव महान। जग ने कब महिमा मानी, अग्नि कुण्ड की परीक्षा जानी। देव पाठ में अधूरी भक्ति,  हवन कुण्ड से बङती शक्ति।  पूजा में दीपक जलाते, अग्नि देव संग ही आराधना करते है। इसलिए हम कहते है, अग्नि देव महान है ।। -कविता रानी। 

दूर से पहाड़ सुहाने

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दूर से पहाड़ सुहाने    नजदीकियाँ क़ीमत घटा देती है। कोई ख़ास हो कितना ही कमियाँ बता देती है।  दूर जाने के फिर कई बहाने है। समझदार को पता है; दूर से पहाड़ सुहाने हैं। । वो कंकड़-पत्थर, रास्ते के फोङे, कहीं ऊँची-निचि पगडंडीयाॅ,  कहीं घने जंगल के साये, पर दूर जाकर जब देखे; तो लगते दूर से पहाड़ सुहाने। । वो जीवन भी ऐसा है, जो सर्वश्रेष्ठ सा दिखता है। दूर से बहुत अच्छा लगता है,  पर अंदर है संघर्ष बहुत कहता है।  हाँ; वो शिखर-सम्मान सुहाने है, जैसे दूर से पहाड़ सुहाने हैं। । पर जो जहाँ रहता है, उस माटी को अपना कहता है। जिसे शीर्ष को पाना है, फिर क्या संघर्ष, क्या बहाना है।  फिर जीवन सफर में जो मिला सब अपने हैं।  फिर हो कोई पहाड़, सब सुहाने हैं। । जैसे दूर से पहाड़ सुहाने हैं। । - कविता रानी। 

मेरे गाँव की गलियाॅ

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  मेरे गाँव की गलियाॅ दूर निकल गाँव से, बङी-बङी सङकों पर चल। भीड़ भरे बाज़ारों में,  शहर में गाङियों के शौर में चल।  मेरे गाँव के सुकून की याद आती है, मुझे मेरे गाँव की गलियों की याद आती है। । खाने को, कुछ कमाने को, जीवन बेहतर बनाने को। मैं अपने खेत का सुकून छोङ आया, मैं अपनी गाय, अपना गाँव छोड़ आया। अब जब से कमाने लगा हूँ,  पहले से अच्छा जीने लगा हूँ।  तो गाँव की याद आती है,  मुझे मेरी गाँव की गलियों की याद आती है। । मेरे गाँव की गलियाँ छोटी थी, वो धूल सनी, सर्पीली थी। वहाँ घर आपस में सटते थे, वहाँ मन आपस में पटते थे। शहर में सब अनजान है, स्वार्थ तक सब साथ है। बस यही बात सताती है, मुझे मेंरे गाँव की याद आती है। । वहाँ बचपन गलियों में फिरता है,  घर-ऑगन फलता फुलता है। एक दूसरे का सब साथ देते हैं, खेत खलिहानों में सब फिरते हैं।  वहाँ की ताजा हवा मुझे बुलाती है,  मुझे मेंरे गाँव की गलियों की याद आती है। । - कविता रानी। 

शिखर / shikhar

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Shikhar - video yha dekhe   शिखर ऊँची नीची राह थी, बङी कठिन मेरी चाह थी। मेरे तन को मन की आस थी, बस यही बात कुछ खास थी।। मैंने मन ही मन ठानी थी, पत्थरीली है राह जानी थी। बस शिखर की हवा खानी थी, और यहीं से शुरू मेरी कहानी थी।। दुर्गम था पर मनमोहक बङा,  रास्ता था मेरा कठोर बङा। अदृश्य था जैसे हिमालय खङा, और मैं भी शिखर देखने को अङा।। आखिर कब तक तकरार होनी थी, चुनौतियों को चुनना मजबूरी थी। मैंने रास्ते छोङे पगडंडीयाॅ चुनी, और मन में शिखर की ज़िद सुनी।। समय बदला, दृश्य बदला, मैदान खत्म हुए, ऊँचाईयाॅ दिखी। हिमालय की मनमोहक वादियां दिखी, था दूर भले, पर अब शिखर दिखा।। अब नजरों में मेरे लक्ष्य है, करने रास्ते सारे व्यस्त हैं।  अब बस शिखर को पाना है,  जीवन साकार बनाना है।। -कविता रानी। 

पगडंडीयाॅ

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  पगडंडीयाॅ     दुर्गम पथ, दरिया-बाधाएं,  पहाड़ी जमीन,  कंटीली राहें। उपवन की सैर में, मंदिर की फेर में, मैं आगे बङी,  पगडंडीयों पर चली। जब रास्ते बंद हो जाते हैं,  पथ भ्रमित कर जाते हैं, सङके जर-जर हो जाती है,  तब पगडंडीयाॅ याद आती है।  मृदुल ये नम मिट्टी से, मखमली नरम घांस से, मनमोहक हरियाली  से, आसान है चलने में। मन में जगह बनाती है,  मंजिल को पहुँचाती है, रास्ते आसान करती है,  पगडंडीयाॅ बहुत काम आती है। । जीवन सफर में कई मोड़ पर रास्ते कठिन हो जाते हैं। उन रास्तों पर चलना तो चुनौती होते ही हैं, मंजिल की कोई गारंटी नही होती। ऐसे समय हमारे काम जो आये और हमारे जीवन को शार्टकट देकर, रास्ते को आसान कर दे वही हमारी पगडंडी है। -कविता रानी। 

विरासत

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  विरासत। देश नहीं बदलते, ना देश की धरोहरें। जो छोङ जाते हैं अपने -अपनों के लिए,  वही कहलाती है विरासतें। । ये कोई आज की इमारतें नहीं,  ये कोई खंडहर, विरान नहीं।  ये हमारी संस्कृति है, ये हमारी विरासत है।। ये धर्म स्तंभ है, ये धर्म ध्वजाऐं हैं।  ये चिन्ह है हमारे पूर्वजों के, ये हमारी विरासतें हैं। । कोई दबी है रेगिस्तानों में,  कोई छुपी हुई है हिमालयों में।  कुछ अछुती है अभी भी जग से, कुछ बन चुकी विश्व धरोहर है। । ये प्राचीनकाल अभिलेख हैं,  ये मानवता के लेख हैं।  आओ! हम गुण गान करें,  अपनी विरासतों पर अभिमान करें।  -कविता रानी। 

आदिनाथ

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  आदिनाथ देवताओं के देव है, मेरे प्रभु महादेव है। कालों के काल है, मेरे प्रभु महाकाल है। है धरा उनकी, है नभ सारा उनका। वो कण-कण बसते, वो जन-जन में बसते। दीनों के दयाल है, मेरे प्रभु दीनदयाल है। नाथों के नाथ है,  मेरे प्रभु आदिनाथ है। । है डमरू हाथ, त्रिशूल साथ। नाग गले में धरते हैं।  है सिर पर चाॅद, त्रिनेत्र ऑख, बाघों का बिछोना करते हैं।  नंदी की सवारी,  देव-दानव पुजारी,  हर-हर में बसते हैं।  कर भस्म बेर, शमशान शेर, आदि योग में रहते हैं।  है आरंभ शिव, है अंत शिव, शिव ही सत्यम, सुन्दर है। कर अमृत दान, हालाहल पान,  सृष्टि के पालनहार है। कालों के काल,  है महाकाल,  मेरे प्रभु आदिनाथ है। । -कविता रानी। 

मोह के मारे।

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मोह के मारे। चित् चिंतन छोङ; अभागा! मति मार, मोह को भागा। कौन काल, विजय पताका? उलझा देह, मन बोझ आका।। बना दानव का राज भारी। देव लोक तक विजय सारी। पर लोभ भरा सोम रस भारी। फिर पीढ़ीयों तक पराजय सारी।। था मंथन मन का सारा। मंथन किया खीर सागर सारा। भाग्य साथ, अमृत हाथ सारा। मोह तन का, फिर दानव हारा।। -कविता रानी। 

नारी / Nari / woman

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नारी - कविता का विडिओ यहाँ देखें   नारी। निर्जन जीवन की संगीनी,  शुष्क धरा की हरियाली,  माता-पिता की लाडली,  अपने ससुराल की मालिनी। है प्यारी अपने ननिहाल की, है मधुशाला अपने माधव की, है मीरा अपने श्याम की, है अर्द्धांगिनी अपने राम की। है रोनक तुझसे घर की, है शान-शोकत तुझसे कुल की, है मर्यादा तुझमें अपनों की, है श्रृंगार तुझसे जग की। कोमलता भी तुझसे सिखती, मानवता भी तुझसे खिलती, धर्म ध्वजा तुझसे लहराती, वीरों के वीर को तू सींचती।  देव दानव सबसे भारी, मानवता में पहले नारी,  तुम्हीं अर्द्धांगिनी, तुम्हीं स्वामिनी, तुझसे जग-जग से तुम्हीं; नारी। -कविता रानी। 

सहारा

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सहारा। नोकायें लहरों पर सवार कर, बहती धारा को पार कर, भूल ना जाना राही के; था नाविक कौन? था पुल कौन? वो जो दुर्दिन में काम आते हैं।  वो जो तेज धार पर चढ़ जाते हैं।  वो सहज ना सबको मिल पाते हैं।  वो देव दूत कहलाते हैं।  तुम अपना मार्ग सुगम कर, बहते दरिया को पार कर, भूल ना जाना राही के; था सहारा कौन? था मुश्किल में साथ कौन? - कविता रानी। 

झील किनारे

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  झील किनारे बन दो पंछी छांव ढूंढे, एक दूसरे में आस ढूंढे, कभी शहर किनारे,  कभी झील किनारे,  हम समय बिताये बन मतवाले। कौन, क्या  सोचे, फिक्र क्यों ? किससे, क्या लेना, जिक्र क्यों  ? हम अपने दम पर, अपने किराये, शांत रहे, बैठे- घूमें,  झील किनारे। । -कविता रानी। 

लोकतंत्र

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  लोकतंत्र; एक परिचय कल्पनाओं को पंख देते हैं,  सब मिलकर अंक देते हैं,  यही बहुमत है, यही विजय है, यही जनतंत्र है, यही लोकतंत्र है। भाषा कई;  परिभाषा कई, जन-जन का चुनाव यही। एक मत से सरकार बदल देते हैं। बरसों से जमे जमाये तख्त बदल देते हैं।  जब जनता चाहे अपने चहेते को विजय कराना, तो लहरों के साथ परिणाम बदल देते हैं।  यही जनतंत्र है।  यही लोकतंत्र है।  समय बदलता,  परिस्थिति बदलती, विजय काल में जो बदला, जनता चुनाव में उसे बदलती। जो जनसेवक बना रहता, जो जन जन का मानस समझता, जो हर समय एक सा रहता, जो बेसहारो का सहारा रहता, जनता फिर उसे समझती। वही विजेता बनता, वही नेता बनता, वही जनतंत्र का रक्षक बनता। यही जनतंत्र है। यही लोकतंत्र है।  आओ मिलकर साथ आए। मतदान करे; सच्चे सेवक को जीतायें। देश सेवा को सर्वोपरि रखें।  मानव सेवा को साथ रखें।  हाँ त्याग रखें,  स्वार्थ त्यागें।  लोकतंत्र को मजबूत रखें।  आओ मिलकर साथ चलें।  लोकतंत्र को मजबूत करें।  जनता का शासन है, जनता को दे। जनता के लिए शासन है, जनसेवक को दे। जनता के ...

गंगा मैया / Ganga maiya

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Click here to see video   गंगा मैया।  पाप नाशनी, ताप नाशनी,  कलरव करती तेरी धारा। नित वाहिनी,  पितृ वाहिनी, सधानिरा तेरी धारा। शीतल पेय, औषध लेय, निर्मल करती काया। जय गंगा मैया।  जय जय गंगा मैया। । देव हो, दानव हो, सबको तुमने अपनाया। वरदान हो, अभिशाप हो, सब तुझमें समाया। नर हो, नारी हो, सबको नारायण मिलाया। तुझमें शक्ति,  तुझमें भक्ति,  कौन तुझ बिन पूरा हो पाया। जय गंगा मैया।  जय जय गंगा मैया। । हो उदास, या भर उल्लास, जो कोई तेरे तट आया। भर उमंग, हो नव संचार,  एक पथ बढ़कर पाया। शांत मन, शीतल तन, हर मानव हर्षाया।  तेरी कृपा अपार, तेरी माया अपार, गाँव-गाँव घर-घर मेें तुझे पाया। जय गंगा मैया।  जय जय गंगा मैया। । हो भाव ब्याह का, हो बाव गाँव की, हो चरी घर की, हो रस्म मंदिर की। ना निर्मल तुझसे कोई पाया, ना पवित्र तुझसे कोई पाया, ना भेद तेरा समझ आया, ना मैल दूर तक समझ आया। क्या है महिमा? क्या है गरिमा? सब तुझसे, सब तुझमें, मैया। जय गंगा मैया।  जय जय गंगा मैया। । - कविता रानी।  

धर्म धरा

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इस माटी का कण-कण देव है, इस धरा की धङकन धर्म।  न्योछावर हुए कई दूत है, समर्पित है मेरा भी मन। आभार मेरे इश्वर को, जिन्होंने दिया यहाॅ जन्म। धन्य धर्म धरा भारती, धन्य यहाॅ का जीवन। । करबद्ध करुँ आरती, नित व्रत-उपवास।  कर्म करूँ सनातनी, नित आधुनिकता का उपहास। जुड़े जङ से मां भारती, है सब तेरा उपकार। धन्य धर्म धरा भारती,  धन्य यहाँ का जीवन; है आभास। देवभूमि है अतुलित, है अतुलनीय यहाँ का इतिहास।  अद्भुत यहाॅ की संस्कृति,  अनमोल इसके प्रमाण।  नमन यहाॅ के वीरों को, बारंबार प्रणाम।  धन्य धर्म धरा भारती,  धन्य यहाॅ का जीवन। ।  -रानी मीना। 

संगीनी / sangini

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Sangini - video yha dekhe है राह लंबी, है वन के साये, भय राह में आये; कभी डराये, कभी भटकाये। मैं पकङ बांह आपकी; साथ चलूँ आपके। मेरे मन को सुकून आपसे; हे तन को आहें, मैं संगीनी आपकी,  चलूँ साथ आपके।  - कविता रानी। 

जीवन सफर

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जीवन सफर में कई सुहावने दृश्य, कई मनमोहक राहें हैं। पर पथ पर कभी पत्थर, कभी ढलानें हैं। चलना थोड़ा संभल कर ऐ राही। जीवन इतना आसान भी नहीं है।  -कविता रानी।   

तपस्वी

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  आसान नहीं तपस्वी होना। एक शिखर पर दिख रहा, समाज को बहुत जच रहा, लग रहा आसान होगा, पर अनजान को समझाना होगा, आसान नहीं तपस्वी होना।  -कवितारानी।