पतझङ

पतझङ वो पत्ते डाल पर पक गये। हवा आई हिले और गीर गये। वो जो नाजुक, हरे, कोमल थे। वो जो पोषण ले डाल पर पले थे। देखे थे कई मौसम जिन्होने, वो सिहरन कर ठण्ड में अकङ गये। मौसम बदला, पतझङ आया और गिर गये।। ये कई तुफान से टकरायें हैं। ये बारिश में भीगे, ओले भी खाये हैं। जो फल लगे पेङ पर,तो पत्थर भी खाये हैं। फिर बंसत में मुस्कायें हैं। शीतल पवन संग झूमे हैं। फुल खिली डाल पर, मनमोहक सुगंध पाये हैं। आखिर जब पक गये पेङों पर, और जब पतझङ के मौसम में आये तो, गिर कर डाल से जमीन पर आये हैं।। हमारा जीवन भी इन पेङ के पत्तों सा होता है, जो जीवन रहते हर सुख-दुख को सहता है और परिवार से जुङा रहता है। जब अपना पतझङ आता है अर्थात जब यहाॅ जीवन पूरा हो जाता है तो हम भी इसी धरा में मिल जाते हैं। -कविता रानी।