मैं पतंगा
मैं पतंगा
मैं बन पतंगा उड़ता,
चमक देख आगे बढ़ता।
लडता खुद ही खुद से मैं,
अड़ता तेज तपन से मैं।
एक जुनून था मुझमें समाया,
बस मिट जाने को जैसे तन पाया।
गिरता-टकराता फिर मंडराया।
जानता था ये देह ले लेगी मेरी,
समझता था ये मिटा देगी जीवनी मेरी।
मोह जाल में ऐसा हुआ,
मैं गिर कर फिर खड़ हुआ।
अध जल पंखो ने हवा भरी,
अध जली काया अब पूरी जली।
मैं पतंगा अब ना मुर्छित,
धुएं में मैं अब लक्षित। ।
Kavitarani1
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