अपना अक्ष ढूँढता हूँ | apna aksha dundta hun


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अपना अक्ष ढूँढता हूँ 


रोज बदलते अक्ष अपने, और बदलते पक्ष अपने ।

स्थिर ना जिनके चेहरे, मैं उनमें कुछ लोग ढुँढता हूँ ।

कहीं ढहर जाऊँ उसकी ओर में ।

मैं वो अपने ढुँढता हूँ, मैं रोज अपना पक्ष ढुँढता हूँ ।।


रोज बनती है रोज बिगड़ती, मेरी जिद मुझसे रोज लड़ती ।

कहीं सुबह का सुकून ढुँढता हूँ, कहीं शाम की तन्हाई ढुँढता हूँ ।

दिखती है रोज रोज मुझे जो अपनी दुनिया ।

उस दुनिया में अपना अक्ष ढुँढता हूँ ।।


रोज नयें राश्ते बनते, रोज पुराने रिश्ते ढुँढते ।

में बनते रिश्तो में अपनापन खोजता हूँ ।

में टुटे रिश्तों में अपनी कमी ढुँढता हूँ ।।


कब जाने शाम ढले, रात की कालिमा ले जाये ।

अधुरे शब्दों को चुनने में, रोशनी की धुन में मैं ।

नये गीतों के लिये, नये शब्द ढुँढता हूँ ।

आज की स्वार्थी दुनिया में मैं अपना पक्ष ढुँढता हूँ ।।


फर्क पड़ता है या पढता नहीं फ़र्क कोई ।

रहेगा कुछ साथ मेरे, रहेगा नहीं साथ कोई ।

इस दुनिया के दक्ष लोगों में, मैं नक्श ढुँढता हूँ ।

जो हो मेरे पक्ष का, मैं उसमें अपना अक्ष ढुँढता हूँ ।।


Kavitarani1 

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